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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास 18 आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास का प्रत्यय भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितनी महत्वपूर्ण पूर्णता की धारणा है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास के विभिन्न स्तरों का विवेचन हुआ है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि इन विभिन्न स्तरों का विवेचन व्यवहार-दृष्टि से ही किया गया है। पारमार्थिक (तत्त्व) की दृष्टि से तो परमतत्त्व या आत्मा सदैव ही अविकारी है। उसमें विकास की कोई प्रक्रिया होती ही नहीं है। वह तो बन्धन और मुक्ति, विकास और पतन से परे या निरपेक्ष है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं - आत्मा गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थान नामक विकास-पतन की प्रक्रियाओं से भिन्न है। 1 इसी बात का समर्थन प्रोफेसर रमाकांत त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक स्पीनोजाइन दिलाइट ऑफ वेदान्त में किया है। स्पीनोजा के अनुसार, आध्यात्मिक मूल तत्त्व न तो विकास की स्थिति में है और न प्रयास की स्थिति में है, लेकिन जैनविचारणा में तो व्यवहार-दृष्टि भी उतनी ही यथार्थ है, जितनी की परमार्थ या निश्चयदृष्टि। जब समस्त आचार-दर्शन ही व्यवहारनय का विषय है, तब नैतिक-विकास की प्रक्रियाएँ भी व्यवहारनय (पर्यायदृष्टि) का ही विषय होंगी, लेकिन इससे उसकी यथार्थता की कोई कमी नहीं होती है। आत्माकी तीन अवस्थाएँ जैन-आचारदर्शन में आध्यात्मिक-पूर्णता अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति ही साधना का लक्ष्य माना गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधक को साधना की विभिन्न श्रेणियों में से गुजरना होता है। ये श्रेणियाँ साधक की साधना की ऊँचाईयों की मापक हैं, लेकिन विकास तो एक मध्य अवस्था है। उसके एक ओर, अविकास की अवस्था है और दूसरी ओर, पूर्णता की अवस्था है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए जैनाचार्यों ने आत्मा की तीन अवस्थाओं का विवेचन किया है-1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा और 3. परमात्मा।' आत्मा के इन तीन प्रकारों की चर्चा जैन-साहित्य में प्राचीनकाल से उपलब्ध है। सर्वप्रथम हमें आचार्य कुन्दकुन्द के मोक्षप्राभृत (मोक्खपाहुड) में आत्मा की तीन अवस्थाओं की स्पष्ट चर्चा उपलब्ध होती है, यद्यपि इसके बीज हमें आचारांग जैसे प्राचीनतम आगम में भी उपलब्ध होते हैं। आचारांग में यद्यपि स्पष्ट रूप से बहिरात्मा, अन्तरात्मा जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं है, किन्तु उसमें इन तीनों ही प्रकार की आत्माओं के लक्षणों का विवेचन उपलब्ध हो जाता है। बहिर्मुखी आत्मा को आचारांग में बाल, मन्द और मूढ़ के नाम से अभिहित किया गया है। ये आत्माएँ ममत्व से युक्त होती हैं और बाह्य-विषयों में रस लेती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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