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________________ जैन-आचार के सामान्य नियम 479 जीवन में अनेक व्यक्ति असत्य बोलते हैं, तो क्या उससे सत्य के मूल्य पर कोई आँच आती है ? वस्तुतः, स्वेच्छा-मरण के सैद्धान्तिक-मूल्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। स्वेच्छा-परणतो मृत्यु की वह कला है, जिसमें न केवल जीवन ही सार्थक होता है, वरन् मरण भी सार्थक हो जाता है। काकासाहब कालेलकर ने खलील जिब्रान का यह वचन उद्धृत किया है कि एक आदमी ने आत्मरक्षा के हेतु खुदकुशी की, आत्महत्या की', यह वचन सुनने में विचित्र-सा लगता है। 213 आत्महत्या से आत्मरक्षा का क्या संबंध हो सकता है ? वस्तुतः, यहाँआत्मरक्षा का अर्थ आध्यात्मिक एवं नैतिक-मूल्यों का संरक्षण है और आत्महत्या का मतलब है शरीर का विसर्जन। जब नैतिक एवं आध्यात्मिक-मूल्यों के संरक्षण के लिए शारीरिक-मूल्यों का विसर्जन आवश्यक हो, तो उस स्थिति में देहविसर्जन या स्वेच्छा मृत्युवरण ही उचित है। आध्यात्मिक-मूल्यों की रक्षा प्राण-रक्षा से श्रेष्ठ है। गीता ने स्वयं अकीर्तिकर जीवन की अपेक्षा मरण को श्रेष्ठ मानकर ऐसा ही संकेत दिया है। 21 काकासाहब कालेलकर के शब्दों में, जब मनुष्य देखता है कि विशिष्ट परिस्थिति में जीना है, तो हीन स्थिति और हीन विचार या सिद्धान्त मान्य रखना ही जरूरी है, तब श्रेष्ठ पुरुष कहता है कि जीने से नहीं, मरकर ही आत्मरक्षा होती है।215 वस्तुतः, समाधि-मरण का व्रत हमारे आध्यात्मिक एवं नैतिक-मूल्यों के संरक्षण के लिए ही लिया जाता है और इसलिए पूर्णतः नैतिक भी है। सन्दर्भ ग्रन्थ1-6. विशेषावश्यकभाष्य टीका (कोट्याचार्य) - उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ. 61-62 7. अनुयोगद्वारसूत्र, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ. 63 8. दर्शन और चिन्तन, खण्ड 2, पृ. 183-184 9. ज्ञानसार, क्रियाष्टक, 5/7 10. नियमसार, 125 11. उत्तराध्ययन, 19/90-91 12. गोम्मटसार, जीवकाण्ड (टीका), 368 13. भगवतीसूत्र, 25/7/21-23 14. जिनवाणी, सामायिक अंक, पृ. 57 15. धम्मपद, 183 16. गीता, 6/32 17. वही, 14/24-25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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