________________
भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
का मूल्य उपस्थित कर देते हैं। मृत्यु जीवन की साधना का परीक्षाकाल है। इस जीवन में लक्षोपलब्धि का अन्तिम अवसर और भावी जीवन की साधना का आरम्भ- - बिन्दु है। इस प्रकार, वह अपने में दो जीवनों का मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन का अवश्यम्भावी अंग है, उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह जीवन का उपसंहार है, जिसे सुन्दर बनाना एक आवश्यक कर्त्तव्य है ।
478
इस प्रकार, हम देखते हैं कि सम्प्रति युग के प्रबुद्ध विचारक भी समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते हैं, अतः जैन-धर्म पर लगाया जाने वाला यह आक्षेप कि वह जीवन के मूल्य को अस्वीकार करता है, उचित नहीं है। वस्तुतः, समाधिमरण पर जो आक्षेप लगाए जाते हैं, उनका सम्बन्ध समाधि-मरण से न होकर आत्महत्या से है। कुछ विचारकों ने समाधि-मरण और आत्महत्या के वास्तविक अन्तर को नहीं समझा और इसी आधार पर समाधि-मरण को अनैतिक कहने का प्रयास किया, लेकिन समाधिमरण या स्वेच्छा मरण आत्महत्या नहीं है और इसलिए उसे अनैतिक भी नहीं कह सकते। जैन आचार्यों ने स्वयं ही आत्महत्या को अनैतिक माना है, लेकिन उनके अनुसार, आत्महत्या समाधि - मरण से भिन्न
है ।
डॉ. ईश्वरचन्द्र ने जीवन्मुक्त व्यक्ति के स्वेच्छा मरण को तो आत्महत्या नहीं माना है, लेकिन उन्होंने संथारे को आत्महत्या की कोटि में रखकर उसे अनैतिक भी बताया है। 212 इस सम्बन्ध में उनके तर्क का पहला भाग यह है कि स्वेच्छा-मरण का व्रत लेने वाले सामान्य जैन मुनि जीवन्मुक्त एवं अलौकिक शक्ति से युक्त नहीं होते और अपूर्णता की दशा में लिया गया आमरण-व्रत (संथारा) नैतिक नहीं हो सकता। अपने तर्क के दूसरे भाग में वे कहते हैं कि जैन - परम्परा में स्वेच्छा मृत्यु - वरण (संथारा) करने में यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर अधिक होता है, इसलिए वह अनैतिक भी है। जहाँ तक उनके इस दृष्टिकोण का प्रश्न है कि जीवन्मुक्त एवं अलौकिक शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति ही स्वेच्छा मरण का अधिकारी है, हम सहमत नहीं हैं। वस्तुतः, स्वेच्छा मरण उस व्यक्ति के लिए आवश्यक नहीं है, जो जीवन्मुक्त है और जिसकी देहासक्ति समाप्त हो गई है, वरन् उस व्यक्ति के लिए है, जिसमें देहासक्ति शेष है, क्योंकि समाधि-मरण तो इसी देहासक्ति को समाप्त करने के लिए है। समाधि-मरण एक साधना है, इसलिए वह जीवन्मुक्त (सिद्ध) के लिए आवश्यक नहीं है । जीवन्मुक्त को तो समाधि-मरण सहज ही प्राप्त होता है। जहाँ तक उनके इस आक्षेप की बात है कि समाधि--मरण में यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर ही अधिक परिलक्षित होता है, उसमें आंशिक सत्यता अवश्य हो सकती है, लेकिन इसका सम्बन्ध संथारे या समाधि-मरण के सिद्धान्त से नहीं, वरन् उसके वर्त्तमान में प्रचलित विकृत रूप से है, लेकिन इस आधार पर उसके सैद्धान्तिक मूल्य में कोई कमी नहीं आती है । यदि व्यावहारिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org