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जैन-आचार के सामान्य नियम
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तो वह दूसरों को अपने से निम्न समझने लगता है और इस प्रकार सामाजिक-जीवन में असमानता की वृत्ति को जन्म देता है। दूसरे, कुल के अहंकार के कारण वह कठिन परिस्थितियों में भी श्रम करने से जी चुराता है, जैसे कि मैं राजकुल का हूँ, अतः अमुक निम्न श्रेणी का व्यवसाय या कार्य कैसे करूँ। इस प्रकार, झूठी प्रतिष्ठा के व्यामोह में अपने कर्त्तव्य से विमुख होता है व समाज पर भार बनकर रहता है। (3) बल-मद - शारीरिकशक्ति का अहंकार करना । शक्ति का अहम् व्यक्ति में भावावेश उत्पन्न करता है और परिणामस्वरूप व्यक्ति में सहनशीलता का अभाव हो जाता है। राष्ट्रों में जब यह शक्ति-मद तीव्र होता है, तो वे दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण के लिए बड़े ही आतुर हो जाते हैं और कुछ न कुछ बात के लिए आक्रमण कर देते हैं । (4) तप-मद- तपस्या का अहंकार करना। व्यक्ति में जब तप का अहंकार जाग्रत होता है, तो वह साधना से गिर जाता है। जैन कथा-साहित्य में कुरुगुडुक केवली की कथा इस बात को बड़े ही सुन्दर रूप में चित्रित करती है कि तप का अहंकार करनेवाले साधना के क्षेत्र में कितने पीछे रह जाते हैं। (5) रूप-मद-शारीरिकसौन्दर्य का अहंकार करना। रूप-मद भी व्यक्ति में अहंकार की वृत्ति जाग्रत कर दूसरे को अपने से निम्न समझने की भावना उत्पन्न करता है और इस प्रकार एक प्रकार की असमानता का बीज बोता है। पाश्चात्य-राष्ट्रों में श्वेत और काली जातियों के बीच चलने वाले संघर्ष के मूल में रूप और जाति का अभिमान ही प्रमुख है। (6) ज्ञान-मद-बुद्धि अथवा विद्या का अहंकार करना। ज्ञान का अहंकार जब व्यक्ति में आता है, तो वह दूसरे लोगों को अपने से छोटा मानने लगता है और इस प्रकार, एक ओर तो वह दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाने से वंचित रहता है और दूसरी ओर, बुद्धि का अभिमान स्वयं उसके ज्ञान-उपलब्धि के प्रयत्नों में बाधक बनता है। इस प्रकार, उसके ज्ञान का विकास कुण्ठित हो जाता है। (7) ऐश्वर्य-मद-धन-सम्पदा और प्रतिष्ठा का अहंकार करना। यह भी समाज में वर्गविद्वेष का कारण और व्यक्ति के अन्दर एक प्रकार की असमानता की वृत्तिको जन्म देता है। (8) सत्ता-मद-पद, अधिकार का घमण्ड करना, जैसे गृहस्थ-वर्ग में राजा, सेनापति, मंत्री आदिके पद, वैसे ही श्रमण-संस्था में आचार्य, उपाध्याय, गणि आदि के पद। जैनपरम्परा के अनुसार, जब तक अहंभाव का विगलन होकर विनम्रता नहीं आता, तब तक व्यक्ति नैतिक-विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता। उत्तराध्ययन- सूत्र में कहा है कि विनय के स्वरूप को जानकर नम्र बनने वाले बुद्धिमान् की लोक में प्रशंसा होती है, जिस प्रकार प्राणियों के लिए पृथ्वी आधारभूत है, उसी प्रकार वह भी सद्गुणों का आधार होता
बौद्ध-परम्परा में अहंकार की निन्दा-बौद्ध-परम्परा में अहंकार को साधना की दृष्टि से अनुचित माना गया है। अंगुत्तरनिकाय में तीन मदों का विवेचन उपलब्ध है।
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