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________________ जैन-आचार के सामान्य नियम 435 प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार साधक तीर्थंकरों के गुणकीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व की शोध कर लेता है, स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता है, लेकिन उसका यह अर्थ नहीं है कि जैन साधना में भगवान् की स्तुति निरर्थक है। जैन-साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान् की स्तुति प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और हमारे सामने साधना के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। इतना ही नहीं, वह उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा भी बनती है। जैन-विचारकों ने यह भी स्वीकार किया है कि भगवान् की स्तुति के माध्यम से मनुष्य अपना आध्यात्मिकविकास कर सकता है। यद्यपि प्रयत्न व्यक्ति का ही होता है, तथापि साधना के आदर्श उन महापुरुषों का जीवन उसकी प्रेरणा का निमित्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि स्तवनसे व्यक्ति की दर्शन-विशुद्धि होती है। 28 यह भी कहा है कि भगवद्भक्ति के फलस्वरूप पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है। यद्यपि इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं, वरन् व्यक्ति के दृष्टिकोण की विशुद्धि ही है। आचार्य भद्रबाहु ने इस बात को बड़े ही स्पष्ट रूप में स्वीकार किया है कि भगवान् के नाम-स्मरण से पापों का पुंज नष्ट होता है। आचार्य विनयचन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं- 30 पाप-परालको पुंजवण्योअति, मानो मेरूआकारो ते तुम नाम हुताशन सेती, सहजही प्रजलत सारो॥ जैन-विचार में स्तुति के दो रूप माने गए हैं- 1. द्रव्य और 2.भाव । सात्विक वस्तुओं द्वारा तीर्थंकर की प्रतिमा की पूजा करना द्रव्यस्तव है और भगवान् के गुणों का स्मरण करना भावस्तव है। जैनों के अमूर्तिपूजक-सम्प्रदाय द्रव्यस्तव के महत्व को स्वीकार नहीं करते हैं। द्रव्यस्तव के पीछे मूलतः यही भावना रही होगी कि उसके माध्यम से मनुष्य ममत्व का त्याग करे। वस्तुओं अथवा संग्रह के ममत्व का त्याग कर देना ही द्रव्यपूजा का प्रयोजन है। द्रव्यपूजा केवल गृहस्थ-उपासकों के लिए है। क्योंकि साधु को न तो ममत्व होता है और न उसके पास कोई संग्रह होता है, अतः उसके लिए भावस्तव ही मुख्य माना गया है। वस्तुतः,स्तवन का मूल्य आदर्शको उपलब्ध करने वाले महापुरुषों की जीवनगाथा के स्मरण के द्वारा साधना के क्षेत्र में प्ररेणा प्राप्त करना है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त वैरे। तथापिते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चेतो दुरितांजनेभ्यः॥ - स्वयम्भूस्तोत्र हे नाथ! आप तो वीतराग हैं। आपको अपनी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है। आप न पूजा करने वालों से खुश होते हैं और न निन्दा करने वालों से नाखुश, क्योंकि आपने तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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