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श्रमण-धर्म
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वाले की अपेक्षा दुराचार की घासखोदने वाले को अधिक महत्व देते हैं, जिसका परिणाम स्थाई नहीं है।
सामाजिक-विकास के लिए सभी सदस्यों का सहयोग अपेक्षित होता है। यही नहीं, वरन् समाज के प्रत्येक सदस्य का कर्त्तव्य भी होता है कि वह सामाजिक-विकास में अपना भाग अदा करे, किन्तु श्रमण-वर्ग समाज के विकास में अपना योगदान नहीं देता है और सामाजिक-विकास में बाधक है। इस आक्षेप का मूल कारण यह है कि हम केवल भौतिक-विकास को ही विकास मान लेते हैं और नैतिक और आध्यात्मिक-विकास को भल जाते हैं। भौतिक-विकास सामाजिक-विकासका एक अंगहो सकता है, लेकिन वह पूर्ण सामाजिक-विकास नहीं है। दूसरे, भौतिक-विकास को नैतिक और सामाजिकविकास से अधिक मूल्यवान् भी नहीं माना जा सकता। ऐसी स्थिति में जैन साधु-वर्ग, जो नैतिक और आध्यात्मिक-विकास में सहयोग देता है, सामाजिक-विकास का बाधक नहीं माना जा सकता।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन आचार-दर्शन में श्रमण-संस्था वैयक्तिक एवं सामाजिक-जीवन में नैतिकता की प्रहरी है। उसके मूल्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ1. बृहद्कल्पसूत्र, 1139 2. सुत्तनिपात, 12/14-15 3. गीता, 5/2 4. उत्तराध्ययन 25/32 5. अनुयोगद्वार उपक्रमाधिकार 1, 3 6. सूत्रकृतांग, 1/16/2-उद्धृत श्रमणसूत्र पृ. 54-57 7. धम्मपद, 264-265 8. वही, 183 9. पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता मत्तः सर्वभूतेभ्योऽभयमस्तु
- उद्धृत नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 101 10. देखिए - हिस्ट्री आफ जैन मोनासिज्म, पृ. 140; भगवान् बुद्ध, पृ. 258 11. प्रवचनसारोद्धार, द्वार 107
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