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________________ 398 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन के आठ गुरु-धर्मों में (अट्ठगुरुधम्मा) में सबसे पहला नियम यही है। 165 जिस प्रकार जैनपरम्परा में व्रत कल्प के रूप में पाँच महाव्रतों के पालन का विधान है, उसी प्रकार बौद्धपरम्परा में भी दस भिक्षु-शीलों के पालन का विधान है। जैन-परम्परा के ज्येष्ठ कल्प के समान बौद्ध-परम्परा में भी दो प्रकार की दीक्षाओं का विधान है, जिन्हें श्रामणेर-दीक्षा और उपसम्पदा कहा गया है। श्रामणेर-दीक्षा परीक्षास्वरूप होती है और उसमें दस भिक्षु-शीलों की प्रतिज्ञा की जाती है। यह दीक्षा कोई भी भिक्षु दे सकता है, लेकिन उपसम्पदादेने के लिए पांच अथवा दस भिक्षुओं के भिक्षु-संघ का होना आवश्यक है,166 क्योंकि उपसम्पदा जैनपरम्परा के छेदोपस्थापनीयचारित्र के समान भिक्षु की संघ में प्रविष्टि है। संघ ही व्यक्ति को संघ में प्रवेश दे सकता है, व्यक्ति नहीं। बौद्ध-परम्परा में भी व्यक्ति की संघ में वरिष्ठता एवं कनिष्ठता उसकी उपसम्पदा की तिथि से ही मानी जाती है। प्रतिक्रमण-कल्प के समान बौद्ध-धर्म में प्रवारणा की व्यवस्था है, जिसमें प्रति पन्द्रहवें दिन भिक्षु-संघ एकत्र होकर उक्त समयावधि में आचरित पापों का प्रायश्चित्त करता है। प्रवारणा की विधि बहुत कुछ जैन-प्रतिक्रमण से मिलती है, बौद्ध-परम्परा में भी जैन-परम्परा के मास-कल्प के समान भिक्षुओं का चातुर्मासकाल के अतिरिक्त एक स्थान पर रुकना वर्जित माना गया है। बौद्धपरम्परा भी भिक्षु-जीवन में सतत भ्रमण को आवश्यक मानती है। उसके अनुसार भी सतत भ्रमण के द्वारा जन कल्याण और भिक्षु-जीवन में अनासक्त-वृत्ति का निर्माण होता है। जैन-परम्परा के पर्युषण-कल्प के समान बौद्ध-परम्परा में भी चातुर्मास काल में एक स्थान पर रुककर धर्म की विशेष आराधना को महत्व दिया गया है। इस प्रकार, भिक्षुजीवन के उपर्युक्त विधानों के संदर्भ में जैन और बौद्ध-परम्पराओं में काफी निकटता है। वैदिक-परम्परा और कल्पविधान-जैन- परम्परा के दस कल्पों में कुछ का विधान वैदिक-परम्परा में भी दृष्टिगोचर होता है। जैन-परम्परा के आचेलक्य-कल्प के समान वैदिक-परम्परा में भी संन्यासी के लिए या तो नग्न रहने का विधान है, अथवा जीर्णशीर्ण अल्प वस्त्र धारण करने का विधान है।167 औद्देशिक-कल्प वैदिक-परम्परा में स्वीकृत नहीं है, यद्यपि भिक्षावृत्ति को ही अधिक महत्व दिया गया है। उच्चकोटि के संन्यासियों के लिए सभी वर्गों के यहाँ की भिक्षा को ग्राह्य माना गया है। वैदिक परम्परा में शय्यातर और राजपिण्ड-कल्प का कोई विधान दिखाई नहीं दिया। वैदिक-परम्परा में भी जैन-परम्परा के कृतिकर्म-कल्प के समान यह स्वीकार किया गया है कि दीक्षा की दृष्टि से ज्येष्ठ संन्यासी के आने पर उसके सम्मान में खड़ा होना चाहिए तथा ज्येष्ठ संन्यासियों को प्रणाम करना चाहिए। वैदिक-परम्परा में अभिवादन के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के नियमों का विधान है ,168 जिसकी विस्तृत चर्चा में जाना यहाँ संभव नहीं है। वैदिक-परम्परा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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