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श्रमण-धर्म
ॐ य किसी भी तरह निकालने की स्थिति न हो, तो वे परस्पर एक-दूसरे से निकलवा सकते
हैं 155
अपरिग्रह - महाव्रत- यह श्रमण का पाँचवाँ महाव्रत है। श्रमण को समस्त बाह्य (स्त्री, संपत्ति, पशु आदि) तथा आभ्यन्तर (क्रोध, मान आदि) परिग्रह का त्याग करना होता है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि श्रमण को सभी प्रकार के परिग्रह का, , चाहे वह अल्प हो या अधिक हो, चाहे वह जीवनयुक्त (शिष्य आदि पर ममत्व रखना अथवा माता-पिता की आज्ञा के बिना किसी को शिष्य बनाकर अपने पास रखना जीवनयुक्त परिग्रह है) हो अथवा निर्जीव वस्तुओं का हो, त्याग कर देना होता है । " श्रमण मन, वचन और काय - तीनों से ही न परिग्रह रखे, न रखवाए और न परिग्रह रखने का अनुमोदन करे । परिग्रह या संचय करने की वृत्ति आन्तरिक - लोभ की ही द्योतक है, इसलिए जो श्रमण किसी भी प्रकार का संग्रह करता है, वह श्रमण न होकर गृहस्थ ही है। 57
जैन आगमों के अनुसार, परिग्रह का वास्तविक अर्थ बाह्य वस्तुओं का संग्रह नहीं, वरन् आन्तरिक-मूर्च्छाभाव या आसक्ति ही है । " तत्त्वार्थसूत्र में भी मूर्च्छा या आसक्ति कोही परिग्रह कहा गया है। 9 यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर- दोनों परम्पराएँ परिग्रह की दृष्टि से आसक्ति को ही प्रमुख तत्त्व स्वीकार करती हैं, तथापि श्रमण - जीवन में बाह्यवस्तुओं की दृष्टि से भी परिग्रह के सम्बन्ध में विचार किया गया है। दिगम्बर- परम्परा श्रमण
- परिग्रह को भी अत्यन्त सीमित करने का प्रयास करती है, जबकि श्वेताम्बरपरम्परा श्रमण के बाह्य-परिग्रह की दृष्टि से अधिक लोचपूर्ण दृष्टिकोण रखती है । यही कारण है कि श्वेताम्बर - परम्परा में श्रमण के बाह्य परिग्रह के सन्दर्भ में परवर्तीकाल में काफी परिवर्द्धन एवं विकास देखा जाता है।
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जैन आगमों में परिग्रह दो प्रकार का माना गया है - 1. बाह्य परिग्रह और 2. आभ्यन्तरिक-परिग्रह। बाह्य परिग्रह में इन वस्तुओं का समावेश होता है - 1. क्षेत्र ( खुली भूमि), 2. वस्तु (भवन), 3. हिरण्य (रजत), 4. स्वर्ण, 5. धन (सम्पत्ति) 6. धान्य, 7. द्विपद (दास - दासी), 8. चतुष्पद (पशु आदि) और 9. कुप्य (घर-गृहस्थी का सामान) 100 जैन - श्रमण उक्त सब परिग्रहों को परित्याग करता है। इतना ही नहीं, उसे चौदह प्रकार के आभ्यन्तरिक - परिग्रह का भी त्याग करना होता है, जैसे - 1. मिथ्यात्व, 2. हास्य, 3. रति, 4. अरति, 5. भय, 6. शोक, 7. जुगुप्सा, 8. स्त्रीवेद, 9. पुरुषवेद, 10. नपुंसकवेद, 11. क्रोध, 12. मान, 13. माया और 14. लोभ । "
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श्रमण के लिए सभी प्रकार का आभ्यन्तर एवं बाह्य परिग्रह त्याज्य है, तथापि भिक्षु - जीवन की आवश्यकताओं की दृष्टि से श्रमण को कुछ वस्तुएँ रखने की
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