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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
जैन-दृष्टिकोण के अनुसार, अस्तेय-महाव्रत का पालन करना इसलिए आवश्यक है कि चौर्यकर्म भी एक प्रकार की हिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि अर्थ या सम्पत्ति प्राणियों का बाह्य-प्राण है, क्योंकि इस पर उनका जीवन आधारित रहता है, इसलिए किसी की वस्तु का हरण उसके प्राणों के हनन के समान है।40 प्रश्नव्याकरण-सूत्र में भी कहा गया है कि यह अदत्तादान (चोरी), संताप, मरण एवंभयरूपी पातकों का जनक है, दूसरे के धन के प्रति लोभ उत्पन्न करता है।41 यह अपयश का कारण और अनार्य-कर्म है, साधुजन इसकी सदैव निन्दा करते हैं, इसीलिए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि श्रमण छोटी अथवा बड़ी, सचित्त अथवा अचित्त कोई भी वस्तु, चाहे वह दाँत साफ करने का तिनका ही क्यों न हो, बिना दिए न ले। न स्वयं उसे ग्रहण करे, न अन्य के द्वारा ही उसे ले और न लेने वाले का अनुमोदन ही करे।42
अस्तेय-महाव्रत के सम्यक् परिपालन के लिए आचारांगसूत्र में पाँच भावनाओं का विधान है - 1. श्रमण विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे, 2. याचित आहारादि वस्तुओं का उपभोग न करे, 3. श्रमण अपने लिए निश्चित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे, 4. श्रमण को जब भी कोई आवश्यकता हो, उस वस्तु की मात्रा का परिमाण निश्चित करके ही याचना करे, 5. अपने सहयोगीश्रमणों के लिएभी विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे। कुछ आचार्यों ने अस्तेय-महाव्रत के पालन के लिए इन पांच बातों को भी आवश्यक माना है - 1. हमेशा निर्दोष स्थान पर ही ठहरना चाहिए, 2. स्वामी की आज्ञा से ही आहार अथवा ठहरने का स्थान ग्रहण करना चाहिए, 3. ठहरने के लिए जितना स्थान गृहस्थ ने दिया है, उससे अधिक का उपयोग नहीं करना चाहिए, 4. गुरु की आज्ञा के पश्चात् ही आहार आदि का उपभोग करना चाहिए, 5. यदि किसी स्थान पर पूर्व में कोई श्रमण ठहरा हो, तो उसकी आज्ञा को प्राप्त करके ही ठहरना चाहिए ।
अस्तेय-महाव्रतके अपवाद-अस्तेय-महाव्रत के सन्दर्भ में जिन अपवादों का उल्लेख है, उनका सम्बन्ध आवास से है। व्यवहारसूत्र में कहा गया है कि यदि भिक्षु-संघ लम्बा विहार कर किसी अज्ञात ग्राम में पहुँचता है और उसे ठहरने के लिए स्थान नहीं मिल रहा हो तथा बाहर वृक्षों के नीचे ठहरने से भयंकरशील की वेदना अथवाजंगली पशुओं के उपद्रव की सम्भावना हो, तो ऐसी स्थिति में वह बिना आज्ञा प्राप्त किए भी योग्य स्थान पर ठहर जाए और उसके बाद आज्ञा प्राप्त करने का प्रयास करे।45
ब्रह्मचर्य-महाव्रत-यह श्रमण का चतुर्थ महाव्रत है। जैन-आगमों में अहिंसा के बाद ब्रह्मचर्य का ही महत्वपूर्ण स्थान है। कहा गया है कि जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्य-व्रत का
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