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श्रमण-धर्म
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उससे पूछे कि-श्रमण! क्या तुमने किसी मनुष्य अथवा पशु आदिको इधर आते देखा है ? इस प्रसंग में, प्रथम तो भिक्षु उसके प्रश्न की उपेक्षा करके मौन रहे। यदि मौन रहने जैसी स्थिति न हो, अथवा मौन रहने का अर्थ स्वीकृति लगाए जाने की सम्भावना हो, तो जानता हुआ भी यह कह दे कि मैं नहीं जानता। 5 यहाँ पर स्पष्ट रूप से अपवादमार्ग का उल्लेख है। निशीथचूर्णि में भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन है। 6 बृहद्कल्पभाष्य में गीतार्थ के द्वारा नवदीक्षित भिक्षुओं को संयम में स्थिर रखने के लिए भी सत्य-महाव्रत में कुछ अपवादों को स्वीकार किया गया है, यद्यपि उस प्रसंग में गीतार्थ द्वारा आचरण सम्बन्धी शिथिलता को दबाने का ही प्रयास परिलक्षित होता है। वस्तुतः, जैन-परम्परा का बुनियादी दृष्टिकोण यह नहीं हो सकता कि व्यक्ति अपनी कमजोरियों को दबाने के लिए असत्य का आश्रय ले। आचारांगसूत्र के उक्त संदर्भ में भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि ग्रन्थकार का मूलभूत दृष्टिकोण अहिंसा-महाव्रत की रक्षा है। उसमें भी प्रथमतः साधक को अपने आत्मबल को जाग्रत रखते हुए मौन रहने काही निर्देश है। महावीर के जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जहाँ उन्होंने सम्भावित आपत्ति को सहन किया, लेकिन असत्य भाषण नहीं करते हुए मौन रहकर ही अहिंसा-महाव्रत की मर्यादा का पालन किया। वस्तुतः, आगमिक-दृष्टिकोण यह है कि यथासंभव सत्य और अहिंसा-दोनों का ही पूर्णतया पालन किया जाए, लेकिन यदि साधक में इतना आत्मबल नहीं है कि वह मौन रहकर दोनों का ही पालन कर सके, तो ऐसी स्थिति में उसके लिए अपवाद-मार्ग का उल्लेख है। आचार्य शीलांक ने आचारांग के उक्त संदर्भ के समान ही अपनी सूत्रकृतांगवृत्ति में सत्य के अपवाद के संदर्भ में स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्रवंचना कि बुद्धिसे रहित, मात्र संयम की रक्षा के लिए एवं कल्याण-भावना से बोला जाता है, वह असत्य दोषरूप नहीं है।
__अस्तेय-महाव्रत-श्रमण का यह तीसरा महाव्रत है। सामान्यतया, भिक्षु को बिना स्वामी की आज्ञा के एक तिनका भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। भिक्षु अपनी जीवनयात्रा के निर्वाह के लिए आवश्यक वस्तुओं को तबही ग्रहण कर सकताहै,जबकि वे उनके स्वामी के द्वारा उसे दी गई हों । अदत्त वस्तु का न लेना ही श्रमण का अस्तेय-महाव्रत है। अस्तेय-महाव्रत का पालन भी श्रमण को मन, वचन और काय तथा कृत, कारित और अनुमोदन की नव-कोटियों सहित करना चाहिए। श्रमण के लिए सामान्य नियम यही है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति भिक्षा के द्वारा ही करे। न केवल नगर अथवा गाँव में, वरन् जंगल में भी यदि उसे किसी वस्तु की आवश्यकता हो, तो बिना दिए स्वयं ही ग्रहण न करे। भोजन, वस्त्र, निवास,शय्या एवं औषध आदि सभी उनके स्वामी की अनुमति तथा उसके द्वारा प्रदत्त किए जाने पर ही ग्रहण करना चाहिए।
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