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श्रमण-धर्म
सत्य - महाव्रत - असत्य का सम्पूर्ण त्याग श्रमण का दूसरा महाव्रत है। श्रमण मन, वचन एवं काय तथा कृत- कारित - अनुमोदन की नवकोटियों सहित असत्य से विरत होने की प्रतिज्ञा करता है । श्रमण को मन, वचन और काय - तीनों से सत्य पर आरूढ़ होना
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चाहिए। मन, वचन और काय में एकरूपता का अभाव ही मृषावाद है। 28 इसके विपरीत, मन, वचन और काय की एकरूपता ही सत्य - महाव्रत का पालन है। सत्य - महाव्रत के संदर्भ
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वचन की सत्यता पर भी अधिक बल दिया गया है। साधारण रूप में सत्य - महाव्रत से असत्य भाषण का वर्जन समझा जाता है। जैन आगमों में असत्य के चार प्रकार कहे गए हैं1. होते हुए नहीं कहना, 2. नहीं होते हुए उसका अस्तित्व बताना, 3. वस्तु कुछ है और उसे कुछ और बताना, 4. हिंसाकारी, पापकारी और अप्रिय वचन बोलना । उपर्युक्त चारों प्रकार का असत्य भाषण श्रमण के लिए वर्जित है ।
श्रमण-साधक को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए, इसका विस्तृत विवेचन दशवैकालिकसूत्र के सुवाक्यशुद्धि नामक अध्ययन में है। जैन आगमों के अनुसार, भाषा चार प्रकार की होती है - 1. सत्य, 2. असत्य, 3. मिश्र और 4. व्यावहारिक | 29 इनमें असत्य और मिश्र भाषा का व्यवहार श्रमण के लिए वर्जित है। इतना ही नहीं, सत्य और व्यावहारिक-भाषा भी यदि पाप और हिंसा की संभावना से युक्त है, तो उसका व्यवहार भी श्रमण के लिए वर्जित है। श्रमण केवल अहिंसक एवं निर्दोष सत्य तथा व्यावहारिक भाषा बोल सकता है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि प्रज्ञावान् भिक्षु अवक्तव्य ( न बोलने योग्य) सत्य भाषा भी न बोले। इसी प्रकार, वह भाषा, जो थोड़ी सत्य और थोड़ी असत्य ( नरो वा कुंजरो वा ) है, ऐसी मिश्र भाषा का व्यवहार भी वाक्संयमी साधु न करे। बुद्धिमान् भिक्षु केवल असत्य - अमृषा (व्यावहारिक) भाषा तथा सत्य भाषा को भी पापरहित, अकर्कश तथा संदेहरहित होने पर ही विचारपूर्वक बोले। इसी प्रकार, साधु निश्चयकारी वचन भी बोले, क्योंकि अघटित भविष्य के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता । जो कथन भूत और वर्तमान के संदर्भ में संदेहरहित हो, उसी के विषय में निश्चयात्मक - भाषा बोले । जिन शब्दों से दूसरे प्राणियों के हृदय में ठेस पहुँचे, ऐसे हिंसक एवं कठोर शब्दों को, चाहे वे सत्य ही क्यों न हों, भिक्षु न बोले । इसी प्रकार, भिक्षु पारिवारिक सम्बन्धों के सूचक शब्द, जैसे- हे माता, हे पुत्र आदि तथा अपमानजनक शब्द, जैसे- हे मूर्ख आदि का भी प्रयोग न करे । जिस भाषा से हिंसा की संभावना हो, ऐसी भाषा का प्रयोग भी न करे। काम, क्रोध, लोभ, भय एवं हास्य के वशीभूत होकर पापकारी, निश्चयकारी, दूसरों के मन को दुःखानेवाली भाषा, चाहे वह मनोविनोद में ही क्यों न कही गई हो, का बोलना भिक्षु के लिए सर्वथा वर्जित है | 30 श्रमण को स्वार्थ अथवा परार्थ, क्रोध अथवा भय के वशीभूत होकर
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