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________________ गृहस्थ-धर्म गृहस्थ-धर्म के सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट विवेचना एवं तुलना के लिए हमें महाभारत की ओर जाना होगा। गीता तो महाभारत का ही एक अंग है। महाभारत में गृहस्थ-धर्म के सम्बन्ध में ऐसे अनेक निर्देश हैं, जो जैन-आचार में वर्णित गृहस्थ-धर्म से साम्यता रखते हैं। निम्न पंक्तियों में केवल तुलनात्मक दृष्टि से साम्य रखने वाले गृहस्थ - आचार को प्रस्तुत किया जा रहा है 339 1. वृथा पशुओं की हिंसा न करे | 108 (अहिंसाणुव्रत) 2. जुआ न खेले और दूसरों का धन न ले । 109 (अस्तेय - अणुव्रत ) 3. किसी को गाली न दे, व्यर्थ न बोले, दूसरों की चुगली या निन्दा न करे, मितभाषी हो, सत्यवचन बोले तथा इसके लिए सदा सावधान रहे। 110 (सत्य-अणुव्रत) 4. अपनी पत्नी के साथ ही विहार करे, परस्त्री के साथ नहीं । अपनी स्त्री को भी जब तक वह ऋतुस्नाता न हुई हो, समागम के लिए अपने पास नहीं बुलाए और मन में एक पत्नीव्रत धारण करे | 111 (स्वपत्नी - सन्तोषव्रत) । 5. गृहस्थ के लिए चार प्रकार की (संग्रह) वृत्ति बताई है - 1. कोठे भर अनाज का संग्रह करके रखना, 2. कुंडे भर अनाज संगृहीत करके रखना, 3. एक दिवस के उपभोग जितने ही अन्न का संग्रह रखना, 4. कापोतीवृत्ति (उच्छवृत्ति) । इन चारों में प्रत्येक अपने पूर्ववर्ती की अपेक्षा श्रेष्ठ मानी गई है। 112 (परिग्रह-परिमाण - व्रत) । 6. विकाल में भोजन नहीं करे। 113 उपवास न करे, किन्तु अधिक भी नहीं खाए, सदा भोजन के लिए लालायित न रहे, जितना जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक हो, उतना ही अन्न पेट में डाले। (उपभोग - परिभोगव्रत) । 7. . केवल अपने लिए भोजन नहीं बनाए। 114 उसे ऐसे सभी लोगों को, जो अपने हाथ से भोजन नहीं पकाते (संन्यासी आदि), सदा ही अन्न देना चाहिए, क्योंकि गृहस्थाश्रम विभाग की विधि है । जिस गृहस्थ के घर में अतिथि भिक्षा न पाने के कारण निराश लौट जाता है, वह गृहस्थ को अपना पाप देकर उसका पुण्य ले जाता है 116 | (अतिथिसंविभागव्रत) । 8. ब्राह्मण दान से, क्षत्रिय युद्ध (सैनिक - वृत्ति) से, वैश्य न्यायपूर्वक व्यवसाय या खेती आदि से और शूद्र सेवा से आजीविका उपार्जित करे। 117 विशेष अवस्था में ब्राह्मण और शूद्र व्यापार, पशुपालन और शिल्प-कला से भी अपनी आजीविका उपार्जित कर सकते हैं।118 महाभारत के अनुसार - नाचना आदि रंगमंच के कार्य, बहुरूपिए का कार्य, मदिरा और मांस का व्यवसाय, लोहे एवं चमड़े का व्यवसाय निन्द्य है और इन्हें छोड़ने की सलाह दी गई है । 119 ब्राह्मण के लिए मांस, मदिरा, मधु (शहद), नमक, तिल, बनाई हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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