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________________ गृहस्थ-धर्म करके, अतिथि अथवा अतिथिगण को उनके द्वारा अपेक्षित योग्य वस्तु का दान कर देना गृहस्थ का अतिथि—संविभागव्रत है। अतिथि- संविभागव्रत का मूलाशय यह है कि गृहस्थ के कर्त्तव्यों की सीमा केवल अपने और अपने परिजनों की आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही नहीं रहे, वरन् उसमें निःस्वार्थ भाव से समाजसेवा करने की वृत्ति भी जाग्रत हो यद्यपि आचार्य भिक्षु आदि कुछ जैन- विचारकों की दृष्टि में गृहस्थ के अतिथि - संविभागव्रत में अतिथि शब्द का अर्थ जैन- श्रमण एवं श्रमणी तक ही सीमित है, लेकिन श्रावकप्रज्ञप्ति में श्रमण, श्रमणी श्रावक एवं श्राविका - इन चारों को ही अतिथि कहा गया है। 4 इस प्रकार; श्रमण, श्रमणी श्रावक तथा श्राविका को गृहस्थ के द्वार पर उपस्थित होने पर उनका भक्तिपूर्वक सम्मान करके अपनी साम्पत्तिक- अवस्था के अनुरूप उन्हें अन्न, पान, वस्त्र, औषध एवं निवासस्थान आदि प्रदान करना गृहस्थ का अतिथिसंविभागव्रत है। अपनी विस्तृत परिभाषा में सच्चरित्र त्यागी महात्मा, सामाजिक- बन्धुगण और दीन-दुःखी, वृद्ध एवं रोगियों की भक्ति एवं प्रेमपूर्वक निःस्वार्थ सेवा करना ही जैन- गृहस्थ के अतिथिसंविभागव्रत का अन्तिम आदर्श है। आचार्य हरिभद्र योगशतक में गुरु, देव, अतिथि आदि के पूजा-स -सत्कार तथा दीनजनों को दान देने का विधान करते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने योगबिन्दु में गुरु की विस्तृत परिभाषा देकर उसे और विस्तृत बना दिया है । वे कहते हैं, माता, पिता, कलाचार्य, उनके सम्बन्धी, वृद्धजन और धर्मोपदेशक- सभी गुरु-वर्ग में आते 86 हैं। " गृहस्थ को इन सबकी योग्य सेवाशुश्रूषा करनी चाहिए। इस व्रत के अतिचारों (दोषों) की विवेचना में मुख्य दृष्टि जैन भिक्षु एवं भिक्षुणी को दिए जाने वाले दान से सम्बन्धित ही है। अतिथि- संविभागव्रत के पाँच दोष (अतिचार) हैं(1) सचित्त - निक्षेपण - साधु को दिए जाने योग्य आहार में किसी सचित्त (सजीव) वस्तु को मिला देना, जिससे वह उसके ग्रहण करने योग्य न रहे। (2) सचित्तापिधान - अदानबुद्धि से उनके ग्रहण करने योग्य निर्दोष वस्तु को किसी सचित्त वस्तु से ढँक देना । (3) कालातिक्रमभिक्षा का समय व्यतीत होने के पश्चात् भोजन तैयार करना। (4) परव्यपदेश - न देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरे की बताना । (5) मात्सर्य - ईर्ष्या - बुद्धि से दान देना या कृपणतापूर्वक दान देना । इसके अतिरिक्त, स्वयं दान नहीं देने से, दान देने वाले को दान देने से रोकने से तथा दान देकर पश्चाताप करने से भी व्रत-भंग होता है । 333 बौद्ध - विचारणा में गृहस्थ-धर्म बौद्धदर्शन में गृहस्थ-उपासकों के लिए आचरण के जो नियम प्रस्तुत किए गए, वे विभिन्न पिटक -ग्रन्थों में यत्र-तत्र बिखरे मिलते हैं । फिर भी, बौद्ध-विचारणा में जैन 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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