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________________ 332 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन जीवनयुक्त मानकर उनकी हिंसा को भी हिंसा मानते हैं और ऐसी हिंसा का पूर्णरूपेण त्याग गृहस्थ-जीवन में सम्भव नहीं होता है, अतः यथाशक्ति किया जानेवाला आंशिक त्याग अश्रेयस्कर नहीं माना जा सकता। । दूसरी आलोचना में बुद्ध का आक्षेप अन्यत्व की भावना के प्रसंग को लेकर है। बुद्ध कहते हैं, वे (निर्ग्रन्थ) उपोसथ-दिन पर श्रावकों से ऐसा व्रत लिवाते हैं, हे पुरुष! तू आ, सभी वस्त्रों का त्याग कर इस प्रकार व्रत ले - 'न मैं किसी का कुछ हूँ और न मेरा कहीं कोई कुछ है', किन्तु उसके माता-पिता जानते हैं कि यह मेरा पुत्र है और पुत्र भी जानता है कि ये मेरे माता-पिता हैं;..... उसके दास-नौकर जानते हैं, यह हमारा स्वामी है और वह भी जानता है कि ये मेरे दास-नौकर हैं। जिस समय ऐसा व्रत लेते हैं, वे झूठा व्रत लेते हैं, इस प्रकार वे मृषावादी होते हैं। उस रात्रि के बीतने पर (त्यक्त) वस्तुओं को बिना किसी के दिए ही उपयोग में लाते हैं, इस प्रकार चोरी करनेवाले होते हैं।32 वर्तमान में पिटक-साहित्य में उल्लेखित इन शब्दों का उपयोग अन्यत्व की भावना का चिन्तन करते समय किया तो जाता है, लेकिन किसी भी व्रत की प्रतिज्ञा ग्रहण करने में नहीं होता है, लेकिन किसी समय प्रतिज्ञा-सूत्र में शब्द अवश्य रहे होंगे, क्योंकि ऐसा ही आक्षेप आजीवक-सम्प्रदाय द्वारा निर्ग्रन्थ सामायिकव्रत के सम्बन्ध में उठाया गया था। भगवतीसूत्र में इस आक्षेप का रूप निम्न है - उपाश्रय में सामायिक लेकर बैठे हुए श्रावक वस्त्राभरणादि और स्त्री का त्याग करते हैं। उस समय अनेक वस्त्राभरण को कोई उठाले, या उनकी स्त्री के साथ कोई संसर्ग करे, व्रत के पूरे होने पर क्यों वे अपने वस्त्राभरण खोजते हैं, या अन्य के, उनकी त्यक्त स्त्री से जिसने संसर्ग किया, उसने उनकी स्त्री का संसर्ग किया या अन्य की ? महावीर ने इसके समाधान में उत्तर दिया कि "वे अपने ही वस्त्रादिखोजते हैं, अन्य के नहीं, ऐसा मानना चाहिए, क्योंकि श्रावक ने मर्यादित समय के लिए उनका त्याग किया था, मन से बिलकुल ममत्व नहीं छोड़ा था।" जो उत्तर आजीविकों के आक्षेप का है, वह उत्तर बुद्ध के आक्षेपका भी है, क्योंकि वह मर्यादित समय के लिए त्याग करता है. अतः उस अवधि के समाप्त होने पर वह न तो चोरी का भागी है और न प्रतिज्ञा लेते समय असत्य सम्भाषण ही करता है। 12. अतिथि-संविभागवत यह व्रत गृहस्थ एवं श्रमण-संस्था के पारस्परिक-सहयोग के रूप में गृहस्थ-उपासक का एक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है। गृहस्थ-उपासक के लिए अतिथि–सेवा का महत्व न केवल जैन-परम्परा में, वरन् वैदिक और बौद्ध-परम्परा में भी स्वीकार किया गया है। अतिथि वह होता है, जिसके आगमन की तिथि (समय) पूर्व निर्धारित नहीं होती है और ऐसे अतिथि के लिए अपने निमित्त बनाई गई अपने अधिकार की वस्तुओं में से समुचित विभाग (संविभाग) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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