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________________ भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन बात प्रकट करना, चुगली करना, गलत रास्ते पर ले जाना, आत्मप्रशंसा और परनिन्दा करना आदि स्थूल- मृषावाद में सम्मिलित हैं । 43 44 उपासकदशांग-सूत्र में महावीर ने सत्याणुव्रत के पाँच अतिचारों 14 से बचते रहने का निर्देश किया है। गृहस्थ-साधक इन दोषों को जानकर कदापि इनका आचरण न करे - 1. दूसरे पर झूठा आरोप लगाना, अथवा बिना पूर्व-विचार के मिथ्या दोषारोपण करना, जैसे- 'तू चोर हैं' । जो दोषारोपण बिना विचार के सहसा किया जाता है, वह अतिचार की कोटि में आता है, लेकिन यदि साधक दुर्भावनापूर्वक दोषारोपण करता है, तो ऐसा दोष अनाचार की कोटि में आता है 45 | ऐसे साधक का व्रत खण्डित हो जाता है, वह साधना से च्युत माना जाता है। हास्यादि में अविवेकपूर्वक किया गया दोषारोपण भी अनैतिक है। 312 2. रहस्य प्रकट कर देना अथवा गोपनीयता भंग कर देना । आज भी राजकीयकर्मचारियों को गोपनीयता की शपथ दिलवाई जाती है और उसका भंग कर देना अपराध है। । जैनदर्शन भी किसी की गोपनीयता भंग करने को दोष मानता है । ऐसा करना विश्वासघात है। कुछ आचार्यगण मूल प्राकृत शब्द 'रहसा अब्भक्खाणे' का अर्थ 'किसी आधार को देखकर दोषारोपण करना - ' ऐसा मानते हैं, जैसे- कुछ लोगों को एकान्त में बैठा देखकर उन पर षडयन्त्र करने का आरोप लगाना । 1 3. स्वदार - मन्त्रभेद - अपनी स्त्री की गुप्त बातों को प्रकट करना । अनेक ऐसी पारिवारिक घटनाएँ होती हैं, जिनका प्रकटन उचित नहीं होता । 4. . मृषोपदेश - गलत मार्गदर्शन करना। इसके तीन रूप हैं - (अ) हम जिन तथ्यों हिताहितया सत्यासत्य को नहीं जानते, उनके सम्बन्ध में स्वतः के अनिश्चित होने पर भी दूसरे को सलाह देना । (ब) किसी बात की हानिप्रदता और असत्यता का ज्ञान होने पर भी दूसरे को उस ओर प्रवृत्त करना। (स) किसी बात के वस्तुतः मिथ्या और अकल्याणकर होने पर भी अज्ञानवश उसे सत्य एवं कल्याणकारी मानते हुए दूसरों को उसमें प्रवृत्त कराना । व्याख्याकारों की दृष्टि में तीसरा रूप दूसरे व्रत की दृष्टि से दोषपूर्ण नहीं है, उसमें मात्र ज्ञानाभाव है, जबकि दूसरा रूप साक्षात् धोखा है, अनाचार है, उससे तो सत्य- व्रत ही खण्डित हो जाता है, अतः मृषोपदेश का पहला रूप ही अतिचार है, जिसके सम्बन्ध में साधक को ही सजग रहना चाहिए । 5. कूटलेखकरण - झूठे दस्तावेज लिखना, झूठे लेख लिखना, नकली मुद्रा (मोहर) बनाना या जाली हस्ताक्षर करना। ऐसे कार्य यदि विवेकहीनता, असावधानी और बिना दुर्भावना के किए जाते हैं, तो भी वे व्रत के दोष हैं, लेकिन यदि दुर्भावनापूर्वक अहितबुद्धि से एवं स्वार्थ साधन के निमित्त किए जाते हैं, तो वे अनाचार बन जाते हैं और ऐसा - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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