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________________ गृहस्थ-धर्म 293 वैयक्तिक-दृष्टि से कुछ गृहस्थ-साधकों को कुछ श्रमण-साधकों की अपेक्षा साधनापथ में श्रेष्ठ माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट निर्देश है कि कुछ गृहस्थ भी श्रमणों की अपेक्षा संयम (साधनामय जीवन) के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं।' साधनामय जीवन में गृही-धर्म और भिक्षु-धर्म में कौन श्रेष्ठ है, इसके सही मूल्यांकन का आधार तो यह है कि इनमें से कौन साधनात्मक-जीवन या नैतिक-जीवन के आदर्श की उपलब्धि को करा पाने में समर्थ है। यदि नैतिक-आदर्श की उपलब्धि के लिए संन्यास-धर्म अनिवार्य है और उसके बिना नैतिक-आदर्श की उपलब्धि सम्भव नहीं है, तो निश्चित ही संन्यास-धर्म को श्रेष्ठ मानना होगा, लेकिन यदिगृहस्थ-धर्म और संन्यास-धर्म-दोनों से ही नैतिक-आदर्श-परिनिर्वाण या मुक्ति की प्राप्ति सम्भव है, तो फिर इस विवाद का अधिक मूल्य नहीं रह जाता है। क्या जैन नैतिक-आदर्श-निर्वाण की प्राप्ति गृहस्थ-जीवन में सम्भव है ? उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टतया स्वीकार किया गया है कि गृहस्थ-जीवन से भी निर्वाण को प्राप्त किया जा सकता है। श्वेताम्बर कथा-साहित्य में भगवान् ऋषभदेव की माता मरुदेवी के द्वारा गृहस्थ-जीवन से सीधे मोक्ष प्राप्त करने तथा भरत के द्वारा श्रृंगारभवन में ही कैवल्य (आध्यात्मिक-पूर्णता)प्राप्त कर लेने की घटनाएँ भी यही बताती हैं कि गृहस्थ-जीवन से भी साधना के अन्तिम आदर्श की उपलब्धि सम्भव है, यद्यपि दिगम्बर-परम्परा स्पष्ट रूप से गृहस्थ-मुक्ति का निषेध करती है। श्वेताम्बर आगम उपासकदशांग में भी महावीर के दस प्रमुख श्रावकों को स्वर्गगामी ही बताया है। साधना की कोटि की दृष्टि से गृहस्थ-उपासक की भूमिका विरताविरत की मानी गई है। उसमें आंशिक रूप से प्रवृत्ति एवं निवृत्ति-दोनों हैं, लेकिन जैन-साधना में आंशिक निवृत्तिमय-प्रवृत्ति का यह जीवन भीसम्यक् है और मोक्ष की ओर ले जाने वाला माना गया है। सूत्रकृतांग में कहा है कि सभी पापाचरणों से कुछ निवृत्ति और कुछ अनिवृत्ति होना ही विरति अविरति है, परन्तु यह आरम्भ-नोआरम्भ (अल्प-आरम्भ) का स्थान भी आर्य है तथा समस्त दुःखों का अन्त करनेवाला मोक्षमार्ग है, यह जीवन भी एकान्त सम्यक् एवं साधु है। इस प्रकार, जैनधर्म की श्वेताम्बर-परम्परा में गृहस्थधर्म को भी मोक्ष-प्रदाता माना गया है। श्रमण और गृहस्थ-दोनों धर्म उसी लक्ष्य की ओर ले जानेवाले हैं। इतना ही नहीं, दोनों ही स्वतन्त्र रूप से उस परमलक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ भी माने गए हैं। बौद्ध-आचारदर्शन में गृहस्थ-जीवन का स्थान __ जैनदर्शन और बौद्धदर्शन-दोनों इस बात में एकमत हैं कि साधनात्मक-जीवन की दृष्टि से गृहस्थ-साधक का स्थान श्रमण-साधक की अपेक्षा निम्न है। यह तो सम्भव है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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