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________________ 26 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन बाह्य-पदार्थों के आकर्षण-क्षेत्र में खींचकर उसमें एक तनाव भी उत्पन्न कर देता है और इससे चेतना दो केन्द्रों में बँट जाती है। आचारांगसूत्र में कहा है, यह मनुष्य अनेकचित्त है, अर्थात् अनेकानेक कामनाओं के कारण मनुष्य का मन बिखरा हुआ रहता है। वह अपनी कामनाओं की पूर्ति क्या करना चाहता है, एक तरह से छलनी को जल से भरना चाहता है। इन दो स्तरों पर चेतना में दोहरा संघर्ष उत्पन्न हो जाता है -- 1. चेतना के आदर्शात्मक और वासनात्मक-पक्षों में (इसे मनोविज्ञान में ईड' और 'सुपर इगो' का संघर्ष कहा है) तथा 2. हमारे वासनात्मक पक्ष का उस बाह्य-परिवेश के साथ, जिसमें वह अपनी वासनाओं की पूर्ति चाहता है। इस विकेन्द्रीकरण और तजनित संघर्ष में आत्मा की सारी शक्तियाँ बिखर जाती हैं, कुण्ठित हो जाती हैं। नैतिक-साधना का कार्य इसी संघर्ष को समाप्त कर चेतन-समत्व को यथावत् कर देना है, ताकि उस केन्द्रीकरण द्वारा वह अपनी ऊर्जाओं को जोड़कर आत्मशक्ति का यथार्थ प्रकटन कर सके। एक अन्य दृष्टि से विचार करें, तो हम बाह्य-जगत् में रस लेने के लिए जैसे ही उसमें अपना आरोपण करते हैं, वैसे ही एक प्रकारकाद्वैत प्रकट हो जाता है, जिसमें हम अपनेपन का आरोपण करते हैं, आसक्ति रखते हैं, वह हमारे लिए स्व' बन जाता है और उससे भिन्न या विरोधी पर' बन जाता है। आत्मा की समत्व के केन्द्र से च्युति ही उसे इन 'स्व' और 'पर' के दो विभागों में बाँट देती है। नैतिक-चिन्तन में इन्हें हम क्रमशः राग और द्वेष कहते हैं। राग आकर्षण का सिद्धान्त है और द्वेष विकर्षण का । अपना-पराया, राग-द्वेष अथवा आकर्षण-विकर्षण के कारण हमारी चेतना में सदैव ही तनाव, संघर्ष अथवा द्वन्द्व बना रहता है। यद्यपि चेतना या आत्मा अपनी स्वाभाविक-शक्ति के द्वारा सदैव साम्यावस्था या सन्तुलन बनाने का प्रयास करती रहती है, लेकिन राग एवं द्वेष-किसी भी स्थायी सन्तुलन की अवस्था को सम्भव नहीं होने देते। यही कारण है कि भारतीय-नैतिकता में राग-द्वेष से ऊपर उठना सम्यक् जीवन की अनिवार्य शर्त मानी गई है। __भारतीय नैतिक-चिन्तन सदैव ही इस दृष्टि से जागरूक रहा है। जैन-नैतिकता का वीतरागता या समत्वयोग (समभाव) का आदर्श और बौद्ध-नैतिकता का सम्यक्-समाधि या वीततृष्णता का आदर्श राग-द्वेष के इस द्वन्द्व से ऊपर उठकर समत्व (साम्यावस्था) में स्थाई अवस्थिति ही है। गीता का नैतिक आदर्श भी इस द्वन्द्वातीत साम्यावस्था की उपलब्धि है, क्योंकि वही अबन्धन की अवस्था है। गीता के अनुसार इच्छा (राग) एवं द्वेष से समुत्पन्न यह द्वन्द्व ही अज्ञान है, मोह है। इस द्वन्द्व से ऊपर उठकर ही परमात्मा की आराधना सम्भव होती है। जो इस द्वन्द्व से विमुक्त हो जाता है, वह परमपद मोक्ष या निर्वाण को प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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