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________________ 260 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन में धर्मों की एकता और साधन-रूप से अनेकता को ही यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा सकता है। सभी धर्मों का साध्य है-समत्व लाभ (समाधि), अर्थात् आन्तरिक तथा बाह्य-शान्ति की स्थापना तथा उसके लिए विक्षोभ के जनक राग-द्वेष और अस्मिता (अहंकार) का निराकरण, लेकिन राग-द्वेष और अस्मिता के निराकरण के उपाय क्या हों ? यहीं विचारभेद प्रारम्भ होता है, लेकिन यह विचारभेद विरोध का आधार नहीं बन सकता। एक ही साध्य की ओर उन्मुख होने से परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते। एक ही केन्द्र से योजित होने वाली परिधि से खिंची हुई विभिन्न रेखाओं में पारस्परिक-विरोध प्रतीत अवश्य होता है, किन्तु वह यथार्थ में होता नहीं है, क्योंकि केन्द्र से संयुक्त प्रत्येक रेखा में एक-दूसरे को काटने की क्षमता नहीं होती है, किन्तु जैसे ही वह केन्द्र का परित्याग करती है, वह दूसरी रेखाओं को अवश्य ही काटती है। साध्य-रूपी एकता में ही साधनरूपी धर्मों की अनेकता स्थित है, अतः यदिधर्मों का साध्य एक है, तो उनमें विरोध कैसा ? अनेकान्त या अनाग्रह धर्मों की साध्यपरक मूलभूत एकता और साधनपरक-अनेकता को इंगित करता है। विश्व के विभिन्न धर्माचार्यों ने अपने युग की तात्कालिक-परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने सिद्धान्तों एवं साधना के बाह्य-नियमों का प्रतिपादन किया। देश-कालगत परिस्थितियों और साधक की साधना की क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म-साधना के बाह्य-रूपों में भिन्नताओं का आजाना स्वाभाविक ही था और ऐसा हुआ भी, किन्तु मनुष्य की अपने धर्माचार्यों के प्रति ममता (रागात्मकता) और उसके मन में अपने व्याप्त आग्रह और अहंकार ने उसे अपने धर्म या साधना-पद्धति को ही एकमात्र एवं अन्तिम सत्य मानने को बाध्य किया। फलस्वरूप, विभिन्न धार्मिक-सम्प्रदायों और उनके बीच साम्प्रदायिकवैमनस्य का प्रारम्भ हुआ। मनुष्य-स्वभाव बड़ा विचित्र है। उसके अहं को जरा-सी चोट लगते ही वह अपना अखाड़ा अलग बनाने को तैयार हो जाता है। यद्यपि वैयक्तिक अहं सम्प्रदायों के निर्माण का एक कारण अवश्य है, लेकिन वही एकमात्र कारण नहीं है। बौद्धिक-भिन्नता और देश-कालगत तथ्य भी इसके कारण रहे हैं और इसके अतिरिक्त पूर्वप्रचलित परम्पराओं में आई हुई विकृतियों के संशोधन के लिए भी सम्प्रदाय बने । धार्मिक-सम्प्रदाय बनने के कारणों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- 1. अनुचित कारण और 2. उचित कारण । अनुचित कारण - (1) ईर्ष्या के कारण, (2) किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि की लिप्सा के कारण, (3) पूर्वसम्प्रदाय से अनबन के कारण ; 2. उचित कारण-(4) किसीआचार-सम्बन्धी नियमोपनियम में भेद के कारण, (5) किसी विशेष सत्य को प्राप्त करने की दृष्टि से एवं (6) किसी साम्प्रदायिक-परम्परा या क्रिया में द्रव्य, क्षेत्र एवं काल के अनुसार संशोधन या परिवर्तन करने की दृष्टि से। उपर्युक्त कारणों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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