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सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
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अशान्त और कलहपूर्ण हो रहा है। वैचारिक-आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो लोगों को आग्रह और मतान्धता से ऊपर उठने के लिए दिशा-निर्देश दे सके। भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर-दो ऐसे महापुरुष हैं, जिन्होंने इस वैचारिक-असहिष्णुता की विध्वंसकारी शक्ति को समझा था और उससे बचने का निर्देश दिया था। वर्तमान में भी धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक-जीवन में जो वैचारिकसंघर्ष और तनाव उपस्थित हैं, उनका सम्यक् समाधान इन्हीं महापुरुषों की विचार-सरणी के द्वारा खोजा जा सकता है। आज हमें विचार करना होगा कि बुद्ध और महावीर की अनाग्रह-दृष्टि के द्वारा किस प्रकार धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक-सहिष्णुता को विकसित किया जा सकता है। धार्मिक-सहिष्णुता
सभी धर्म-साधना-पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य राग, आसक्ति, अहं एवं तृष्णा की समाप्ति रहा है। जैन-धर्म की साधना का लक्ष्य वीतरागता है, तो बौद्ध-धर्म का साधनालक्ष्य वीततृष्ण होना माना गया है। वहीं वेदान्त में अहं और आसक्ति से ऊपर उठनाही मानव का साध्य बताया गया है, लेकिन क्या आग्रह वैचारिक-राग, वैचारिक-आसक्ति, वैचारिकतृष्णा अथवा वैचारिक-अहं का ही रूप नहीं है ? और जब तक वह उपस्थित है, धार्मिकसाधना के क्षेत्र में लक्ष्य की सिद्धि कैसे होगी? पुनः, जिन साधना-पद्धतियों में अहिंसा के आदर्श को स्वीकार किया गया, उनके लिए आग्रह या एकान्त वैचारिक-हिंसा का प्रतीक भी बन जाता है। एक ओर, साधना के वैयक्तिक-पहलू की दृष्टि से मताग्रह वैचारिकआसक्ति या राग का ही रूप है, तो दूसरी ओर, साधना के सामाजिक-पहलू की दृष्टि से वह वैचारिक-हिंसा है। वैचारिक-आसक्ति और वैचारिक-हिंसा से मुक्ति के लिए धार्मिकक्षेत्र में अनाग्रह और अनेकान्त की साधनाअपेक्षित है। वस्तुतः, धर्मका आविर्भावमानवजाति में शान्ति और सहयोग के विस्तार के लिए हुआथा। धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था, लेकिन आज वहीधर्म मनुष्य मनुष्य में विभेद की दीवारेखीचरहा है। धार्मिकमतान्धता में हिंसा, संघर्ष, छल, छद्म, अन्याय, अत्याचार क्या नहीं हो रहा है ? क्या वस्तुतः इसका कारण धर्म हो सकता है ? इसका उत्तर निश्चित रूपसे 'हाँ' में नहीं दिया जा सकता। यथार्थ में 'धर्म' नहीं, किन्तु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका ॐ कार ही यह सब करवाता रहा है। यह धर्म का नकाब ओढ़े अधर्म है।
ध एक याअनेक-मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक हैं या हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेकान्तिक-शैली से यह होगा कि धर्म एक भी है और अनेक भी, साध्यात्मक-धर्म या धर्मों का साध्य एक है, जबकि साधनात्मक-धर्म अनेक हैं। साध्य-रूप
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