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(453); ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया का द्विविध रूप (454); गुणस्थान का सिद्धान्त (454); मिथ्यात्व - गुणस्थान (455) ; सास्वादन- गुणस्थान (456) ; सम्यक् - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान या मिश्र गुणस्थान (457); अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान (459) ; देशविरतसम्यग्दृष्टि- गुणस्थान (461) ; प्रमत्त- सर्वविरतसम्यग्दृष्टि - गुणस्थान (462) ; अप्रमत - संयत - गुणस्थान (463) ; अपूर्वकरण (464); अनावृत्तिकरण - बादरसम्पराय - गुणस्थान (466) ; सूक्ष्म सम्पराय (466); उपशान्तमोह - गुणस्थान (467) ; क्षीणमोहगुणस्थान (468) ; सयोगी - केवली - गुणस्थान (469); अयोगीकेवलीगुणस्थान (470); बौद्ध-साधना में आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ (471) ; हीनयान और आध्यात्मिक विकास ( 471 ); स्रोतापन्न भूमि (472) ; सकृदागामी भूमि (473); दीप्रादृष्टि और प्राणायाम (490); स्थिरादृष्टि और प्रत्याहार (490); कान्तादृष्टि और धारणा (491); प्रभादृष्टि और ध्यान (491); परादृष्टि और समाधि (491); योगबिन्दु में आध्यात्मिकविकास (491)।
उपसंहार
अध्याय : 19 महावीर - युग की आचार - दर्शन सम्बन्धी समस्याएँ और जैन- दृष्टिकोण (492); नैतिकता की विभिन्न धारणाओं का समन्वय (492) ; नैतिकता के बहिर्मुखी एवं अन्तर्मुखी दृष्टिकोणों का समन्वय (493) ; मानव मात्र की समानता का उद्घोष (494); ईश्वरवाद से मुक्ति (494) ; रूढ़िवाद से मुक्ति (494); यज्ञ का नया अर्थ (495) ; तत्कालीन अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों के प्रति नया दृष्टिकोण (497); समकालीन परिस्थितियों में जैन आचार - दर्शन का मूल्यांकन (498) ; सामाजिक विषमता (498) ; आर्थिक-वैषम्य (500); वैचारिक - वैषम्य (502) ; मानसिक-वैषम्य (502) ; मानसिक वैषम्य - निराकरण के सूत्र (503) ; वर्त्तमान युग में नैतिकता की जीवन-दृष्टि (504) ; अनासक्त जीवन - दृष्टि का निर्माण (507) 1
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