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________________ भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन नियत होती है । 14 युधिष्ठिर कहते हैं, “तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि में केवल आचरण (सदाचार) ही जाति का निर्धारक तत्त्व है। "15 वनपर्व में कहा गया है, "ब्राह्मण न जन्म से होता है, न संस्कार से, न कुल से और न वेद के अध्ययन से, ब्राह्मण केवल व्रत (आचरण) से होता है ।"1" बौद्धागम सुत्तनिपात के समान महर्षि अत्रि भी कहते हैं, जो ब्राह्मण धनुष-बाण और अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्ध में विजय पाता है, वह क्षत्रिय कहलाता है। जो ब्राह्मण खेतीबड़ी और गोपालन करता है, जिसका व्यवसाय वाणिज्य है, वह वैश्य कहलाता है। जो ब्राह्मण लाख, लवन, केसर, दूध, मक्खन, शहद और मांस बेचता है, वह शूद्र कहलाता है । जो ब्राह्मण चोर, तस्कर, नट का कर्म करने वाला, मांस काटने वाला और मांस-मत्स्यभोगी है, वह निषाद कहलाता है । क्रियाहीन, मूर्ख सर्व धर्म विवर्जित, सब प्राणियों के प्रति निर्दय ब्राह्मण चाण्डाल कहलाता है। 17 210 18 - डॉ. भिखनाल आत्रेय ने भी गुण-कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था का समर्थन किया है" - (अ) प्राचीन वर्ण-व्यवस्था कठोर नहीं थी, लचीली थी। वर्ण- परिवर्तन का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में था, क्योंकि आचरण के कारण वर्ण परिवर्तित हो जाता था । उपनिषदों में वर्णित सत्यकाम जाबाल की कथा इसका उदाहरण है । 19 सत्यकाम जाबाल की सत्यवादिता के आधार पर ही उसे ब्राह्मण मान लिया गया था । (ब) मनुस्मृति में भी वर्ण - परिवर्तन का विधान है ; लिखा है कि सदाचार के कारण शूद्र ब्राह्मण हो जाता है और दुराचार के कारण ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। यही बात क्षत्रिय और वैश्य के सम्बन्ध में भी है 120 नैतिक दृष्टि से गीता के आचार-द -दर्शन के अनुसार भी कोई एक वर्ण दूसरे वर्ण से श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि नैतिक विकास वर्ण पर निर्भर नहीं होता है। व्यक्ति स्वभावानुकूल किसी भी वर्ण के नियम-कर्मों का सम्पादन करते हुए नैतिक- पूर्णता या सिद्धि को प्राप्त कर सकता है । 21 वर्ण-व्यवस्था के द्वारा निहित कर्म नैतिक दृष्टि से अच्छे या बुरे नहीं होते, सहज कर्म सदोष होने पर त्याज्य नहीं होते, 23 क्योंकि वे नैतिक-विकास को अवरूद्ध नहीं करते । वस्तुतः, गीता में वर्ण-व्यवस्था के पीछे जो गुण-कर्म की धारणा है, उसे किंचित् गहराई से समझना होगा । गुण और कर्म में भी, वर्ण-निर्धारण में गुण प्राथमिक है, कर्म का चयन तो स्वयं ही गुण पर निर्भर है। गीता का मुख्य उपदेश अपनी योग्यता या गुण के आधार पर कर्म करने का है। उसका कहना है कि योग्यता, स्वभाव अथवा गुण के आधार पर ही व्यक्ति की सामाजिक जीवन प्रणाली का निर्धारण होना चाहिए। 24 समाज-व्यवस्था में अपने कर्तव्य - निर्वाह और आजीविका के उपार्जन के हेतु व्यक्ति को कौनसा व्यवसाय या कर्म चुनना चाहिए, यह बात उसकी योग्यता अथवा स्वभाव पर ही निर्भर है। यदि व्यक्ति 22 1 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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