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________________ वर्णाश्रम व्यवस्था 209 “हाँ, मैंने सुना है कि यवन और कम्बोज में ऐसा होता है।" इस आधार पर बुद्ध वर्ण-परिवर्तन को सम्भव मानते हैं। सभीजाति समान हैं- तो क्या मानते हो आश्वलायन! क्षत्रिय प्राणीहिंसक, चोर, दुराचारी, झूठा, चुगलखोर, कटुभाषी, बकवादी, लोभी, द्वेषी, झूठीधारणा वाला हो, तो शरीर छोड़ मरने के बाद नरक में उत्पन्न होगा या नहीं ? ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, प्राणीहिंसक हो, तो नरक में उत्पन्न होंगे या नहीं? “हे गौतम! क्षत्रिय भी प्राणी-हिंसक हो, तो नरक में उत्पन्न होगा और ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र भी।" “तो क्या मानते हो आश्वलायन ! क्या ब्राह्मण ही प्राणी-हिंसा से विरत हो, तो अच्छी गति प्राप्त कर स्वर्गलोक में उत्पन्न हो सकता है और क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-वर्ण नहीं।" "नहीं, हे गौतम! क्षत्रिय भी यदि प्राणीहिंसा से विरत हो, तो अच्छी गति प्राप्त कर स्वर्गलोक में उत्पन्न हो सकता है और ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र-वर्ण भी।" "तो क्या मानते हो आश्वलायन ! क्या ब्राह्मण ही वैररहित, द्वेषरहित मैत्री-चित्त की भावना कर सकता है , क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं।" इस प्रकार, बुद्ध स्वयं आश्वलायन के प्रति उत्तरों से ही सभी जातियों की समानता का प्रतिपादन करते हैं और यह बताते हैं कि सभी नैतिक-विकास कर सकते हैं। आचरण ही श्रेष्ठ है- “तो क्या मानते हो आश्वलायन ! यदि यहाँ दो माणवक जुड़वेभाई हों, एक अध्ययन करने वाला, उपनीत, किन्तु दुःशील, पापी हो; दूसराअध्ययन न करने वाला, अनुपनीत, किन्तु शीलवान्, पुण्यात्मा हो, इनमें ब्राह्मण श्राद्ध, यज्ञ या पहुनाई में पहले किसको भोज कराएंगे।" "हे गौतम! वह माणवक, जोअध्ययन न करने वाला, अनुपनीत, किन्तु शीलवान्, कल्याणधर्मा है, उसी को ब्राह्मण पहले भोजन कराएंगे। दुःशील, पापधर्मा को दान देने से क्या महाफल होगा?" “आश्वलायन! पहले तू जाति पर पहुँचा, जाति से मंत्रों पर पहुँचा, मंत्रों से अब तु चातुर्वर्णी-शुद्धि पर आ गया, जिसका मैं उपदेश करता हूँ।"12 गीता तथा वर्ण-व्यवस्था-वास्तव में हिन्दूआचार-दर्शन में भी वर्ण-व्यवस्था जन्म पर नहीं, वरन् कर्म पर ही आधारित है। गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर ही किया गया है। 13 डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं, यहाँ जोर गुण और कर्म पर दिया गया है, जाति (जन्म) पर नहीं। हम किस वर्ण के हैं, यह बात लिंग या जन्म पर निर्भर नहीं है। स्वभाव और व्यवसाय द्वारा निर्धारित जाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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