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________________ भारतीय-दर्शन में सामाजिक-चेतना 177 यह माना जाता है कि निवृत्ति-प्रधान दर्शन व्यक्ति-परक और प्रवृत्ति-प्रधान दर्शन समाजपरक होते हैं, किन्तु यह मान लेना कि भारतीय-चिन्तन की निवर्तक-धारा के समर्थक जैन, बौद्ध आदि दर्शन असामाजिक हैं या इन दर्शनों में सामाजिक-संदर्भ का अभाव है, नितान्त भ्रम होगा। इनमें भी सामाजिक-भावना से पराङ्मुखता नहीं दिखाई देती है। ये दर्शन इतना तो अवश्य मानते हैं कि चाहे वैयक्तिक-साधना की दृष्टि से एकांकी जीवन लाभप्रद हो सकता है, किन्तु उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक-कल्याण की दिशा में ही होना चाहिए। महावीर और बुद्ध का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है कि वे ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् जीवन-पर्यन्त लोक-मंगल के लिए कार्य करते रहे। यद्यपि इन निवृत्तिप्रधानदर्शनों में जो सामाजिक-सन्दर्भ उपस्थित हैं, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं । इनमें मूलतः सामाजिक-सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है। सामाजिक-सन्दर्भ की दृष्टि से इनमें समाज-रचना एवं सामाजिक-दायित्वों की निर्वहण की अपेक्षा समाज-जीवन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल दिया गया है। जैन-दर्शन के पंच महाव्रत, बौद्धदर्शन के पंचशील और योगदर्शन के पंच यमों का सम्बन्ध अनिवार्यतया हमारे सामाजिकजीवन से ही है। प्रश्नव्याकरणसूत्र नामक जैन-आगम में कहा गया है कि तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। पांचों महाव्रत सर्वप्रकार से लोकहित के लिए हैं। 12 हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, संग्रह (परिग्रह)-ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक-जीवन की दृष्प्रवृत्तियाँ हैं। ये सब दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार से संबंधित हैं। हिंसा का अर्थ है-किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है-किसी अन्य को गलत जानकारी देना, चोरी का अर्थ है-किसी दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण करना, व्यभिचार का मतलब है-सामाजिक-मान्यताओं के विरुद्ध यौन सम्बन्ध स्थापित करना, इसी प्रकार, संग्रह यापरिग्रहकाअर्थ है-समाज में आर्थिक-विषमता पैदा करना। क्यासमाज-जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ या संदर्भरह जाता है ? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की जो मर्यादाएं इन दर्शनों ने दीं, वे हमारे सामाजिक-सम्बन्धों की शुद्धि के लिए ही हैं। इसी प्रकार; जैन, बौद्ध और योग-दर्शनों की साधना-पद्धति में समान रूप से प्रस्तुत मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ-भावनाओं के आधार पर भी सामाजिक-संदर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है। जैनाचार्य अमितगति इन भावनाओं की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में करते हैं सत्वेषु मैत्री गुणीषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। मध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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