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________________ भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक-शिक्षा को चाहते हुए कर्म करता रहे (कुर्यात् विद्वान् तथा असक्तः चिकीर्षुः लोकसंग्रहम्) । ' गीता में गुणाश्रित कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था का जो आदर्श प्रस्तुत किया था, वह भी सामाजिक दृष्टि से कर्तव्यों एवं दायित्वों के विभाजन का एक महत्वपूर्ण कार्य था, यद्यपि भारतीय - समाज का यह दुर्भाग्य था कि गुण अर्थात् वैयक्तिक- योग्यता के आधार पर कर्म एवं वर्ण का यह विभाजन किन्हीं निहित स्वार्थों के कारण जन्मना बना दिया गया । वस्तुतः, वेदों में एवं स्वयं गीता में भी जो विराट् पुरुष के विभिन्न अंगों से उत्पत्ति के रूप में वर्णों की अवधारणा है, वह अन्य कुछ नहीं, अपितु समाज - पुरुष के विभिन्न अंगों की अवधारणा है और किसी सीमा तक समाज के आंगिकता-सिद्धांत का ही प्रस्तुतिकरण है। सामाजिक - जीवन में विषमता एवं संघर्ष का एक महत्वपूर्ण कारण सम्पत्ति का अधिकार है। श्रीमद्भागवत भी ईशावास्योपनिषद् के समान ही सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को अस्वीकार करती है। उसमें कहा गया है - यावत् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं देहिनाम् । अधिको योऽभिमन्येत, स स्तेनो दण्डमर्हति ॥" अर्थात्, अपनी दैहिक- आवश्यकता से अधिक सम्पदा पर अपना स्वत्व मानना सामाजिक दृष्टि से चोरी है, अनधिकृत चेष्टा है। आज का समाजवाद एवं साम्यवाद भी इसी आदर्श पर खड़ा है, 'योग्यता के अनुसार कार्य और आवश्यकता के अनुसार वेतन' की उसकी धारणा यहाँ पूरी तरह उपस्थित है। भारतीय - चिन्तन में पुण्य और पाप का जो वर्गीकरण है, उसमें भी सामाजिक दृष्टि ही प्रमुख है। पाप के रूप में जिन दुर्गुणों का और पुण्य के रूप में जिन सद्गुणों का उल्लेख है, उनका सम्बन्ध वैयक्तिक जीवन की अपेक्षा सामाजिक-जीवन से अधिक है। पुण्य और पाप की एकमात्र कसौटी है - किसी कर्म का लोक-मंगल में उपयोगी या अनुपयोगी होना। कहा भी गया है - 'परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्' लोक के लिए हितकर है, कल्याणकर है, वह पुण्य है और इसके विपरीत, जो भी दूसरों के लिए पीड़ा - जनक है, अमंगलकर है, वह पाप है । इस प्रकार, भारतीय चिन्तन में पुण्यपाप की व्याख्याएँ भी सामाजिक दृष्टि पर ही आधारित हैं । जैन एवं बौद्धधर्म में सामाजिक चेतना 176 यदि हम निवर्तक- धारा के समर्थक जैनधर्म एवं बौद्धधर्म की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि इनमें समाज की दृष्टि की उपेक्षा की गई है। सामान्यतया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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