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________________ भारतीय-दर्शन में सामाजिक-चेतना 173 समानी व आकूति : समाना हृदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥ अर्थात्, आप सबके निर्णय समान हों , आप सबकी सभा भी सबके लिए समान हो, अर्थात् सबके प्रति समान व्यवहार करें। आपका मन भी समान हो और आपकी चित्तवृत्ति भी समान हो, आपके संकल्प एक हों, आपके हृदय एक हों, आपका मन भी एकरूपहो, ताकि आप मिलजुलकर अच्छी तरह से कार्य कर सकें। सम्भवतः,सामाजिकजीवन एवं समाज-निष्ठा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक-युग के भारतीय-चिन्तक के ये सबसे महत्वपूर्ण उद्गार हैं । वैदिक-ऋषियों का कृण्वंतो विश्वमार्यम्' के रूप में एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मानव-समाज की रचना का मिशन तभी सफल हो सकता था, जबकि वे जनजन में समाज-निष्ठा के बीज का वपन करते । सहयोगपूर्ण जीवन-शैली उनका मूल मंतव्य था। प्रत्येक अवसर पर शांति-पाठ के माध्यम से वे जन-जन में सामाजिक-चेतना के विकास का प्रयास करते थे। वे अपने शांति-पाठ में कहते थे ॐ सहना भवतु सहनौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै, तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।' हम सब साथ-साथ रक्षित हों , साथ-साथ पोषित हों, साथ-साथ सामर्थ्य को प्राप्त हों, हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम आपस में विद्वेष न करें। वैदिक समाज-दर्शन का आदर्श था- 'शत-हस्तः समाहर, सहस्रहस्तः सीकर' सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों से बाँटो, किन्तु यह बाँटने की बात दया या कृपा नहीं है, अपितु सामाजिकदायित्व का बोध है, क्योंकि भारतीय-चिंतन में दान के लिए संविभाग शब्द का प्रयोग होता रहा है, इसमें सम वितरण या सामाजिक-दायित्व का बोध ही प्रमुख है, कृपा, दया, करुणा-ये सब गौण हैं। आचार्य शंकर ने दान की व्याख्या की है 'दानं संविभागं' । जैनदर्शन में तो अतिथि-संविभाग के रूप में एक स्वतन्त्र व्रत की व्यवस्था की गई है। संविभाग शब्द करुणा का प्रतीक न होकर सामाजिक-अधिकार का प्रतीक है। वैदिक-ऋषियों का निष्कर्ष था कि जो अकेलाखाता है, वह पापी है (केवलादो भवति केवलादी)। जैनदार्शनिक भी कहते थे असंविभागी नहु तस्स मोक्खो,' जो सम-विभागी नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होगी। इस प्रकार, हम वैदिक-युग में सहयोग एवं सहजीवन का संकल्प उपस्थित पाते हैं, किन्तु उसके लिए दार्शनिक-आधार का प्रस्तुतिकरण औपनिषदिक-चिन्तन में ही हुआ है । औपनिषदिक ऋषि ‘एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा' 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' तथा 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' के रूप में एकत्व की अनुभूति करने लगा। औपनिषदिक-चिन्तन में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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