SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 172 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन वैदिक-युग में जनमानस में सामाजिक-चेतना को जाग्रत करने का प्रयत्न किया गया, जबकि औपनिषदिक-युग में सामाजिक-चेतना के लिए दार्शनिक-आधार पर प्रस्तुतिकरण किया गया और जैन-बौद्ध-युग में सामाजिक-सम्बन्धों के शुद्धिकरण पर बल दिया गया। वैयक्तिकता और सामाजिकता-दोनों ही मानवीय 'स्व' के अनिवार्य अंग हैं। पाश्चात्य-विचारक ड्रडले का कथन है कि मनुष्य नहीं है, यदि वह सामाजिक नहीं, किन्तु यदि वह मात्र सामाजिकही है, तो वह पशु से अधिक नहीं है। मनुष्य की मनुष्यता वैयक्तिकता और सामाजिकता-दोनों का अतिक्रमण करने में है। वस्तुत:, मनुष्य एक ही साथ सामाजिक और वैयक्तिक-दोनों ही है, क्योंकि मानव-व्यक्तित्व में राग-द्वेष के तत्त्व अनिवार्य रूप से उपस्थित हैं। राग का तत्त्व उसमें सामाजिकता का विकास करता है, तो द्वेष का तत्त्व उसमें वैयक्तिकता या स्व-हितवादी-दृष्टि का विकास करता है। जब राग का सीमाक्षेत्र संकुचित होता है और द्वेष का अधिक विस्तरित होता है, तो व्यक्ति को स्वार्थी कहा जाता है, उसमें वैयक्तिकता प्रमुख होती है, किन्तु जब राग का सीमा क्षेत्र विस्तरित होता है और द्वेष का क्षेत्र कम होता है, तब व्यक्ति परोपकारी या सामाजिक कहा जाता है, किन्तु जब वह वीतराग और वीतद्वेष होता है, तब वह अतिसामाजिक होता है, किन्तु अपने और पराए भाव का यह अतिक्रमण असामाजिक नहीं है। वीतरागता की साधना में अनिवार्य रूप से 'स्व' की संकुचितसीमाको तोड़ना होता है, अतः ऐसी साधना अनिवार्य रूपसे असामाजिक तो नहीं हो सकती है। साथ ही, मनुष्य जब तक मनुष्य है, वह वीतराग नहीं हुआ है, तो स्वभावतः ही एक सामाजिक-प्राणी है। अतः, कोई भी धर्म सामाजिक-चेतना से विमुख होकर जीवित नहीं रह सकता। वेदों एवं उपनिषदों में सामाजिक-चेतना भारतीय-चिन्तन की प्रवर्तक वैदिक-धारा में सामाजिकता का तत्त्व उसके प्रारम्भिक-काल से ही उपस्थित है। वेदों में सामाजिक-जीवन की संकल्पना के व्यापक सन्दर्भ हैं। वैदिक-ऋषि सफल एवं सहयोगपूर्ण सामाजिक-जीवन के लिए अभ्यर्थना करते हुए कहता है कि संगच्छध्वं संवदध्वंसं वो मनांसि जानताम्' - तुम मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें; अर्थात् तुम्हारे जीवन-व्यवहार में सहयोग, तुम्हारी वाणी में समस्वरता और तुम्हारे विचारों में समानता हो।' आगे पुनः वह कहता है समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सहचित्तमेषाम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy