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________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग आसक्ति का परित्याग ही है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि मनुष्य प्रवृत्ति - लक्षण - रूप गृहस्थधर्म का आचरण कर रहा है या निवृत्ति - लक्षणरूप संन्यासधर्म का पालन कर रहा है । महत्वपूर्ण यह है कि वह वासनाओं से कितना ऊपर उठा है, आसक्ति की मात्रा कितने अंश में निर्मूल हुई है और समत्वदृष्टि की उपलब्धि में उसने कितना विकास किया है। - - निष्कर्ष - यदि हम इस गहन विवेचना के आधाररूप निवृत्ति का अर्थ राग-द्वेष से अलिप्त रहना मानें, तो तीनों आचार-दर्शन निवृत्तिपरक ही सिद्ध होते हैं। जैन दर्शन का मूल केन्द्र अनेकान्तवाद जिस समन्वय की भूमिका पर विकसित होता है, वह मध्यस्थ-भाव है और वही राग-द्वेष से अलिप्तता है। यही जैन- दृष्टि में यथार्थ निवृत्ति है। पं. सुखलालजी लिखते हैं, अनेकान्तवाद जैन तत्त्वज्ञान की मूल नींव है और राग-द्वेष के छोटे-बड़े प्रसंगों से अलिप्त रहना (निवृत्ति) समग्र आचार का मूल आधार है । अनेकान्तवाद का केन्द्र मध्यस्थता में है और निवृत्ति भी मध्यस्थता से ही पैदा होती है, अतएव अनेकान्तवाद और निवृत्ति - ये दोनों एक-दूसरे के पूरक एवं पोषक हैं । . जैन-धर्म का झुकाव निवृत्ति की ओर है । निवृत्ति यानी प्रवृत्ति का विरोधी दूसरा पहलू । प्रवृत्ति का अर्थ है, रागद्वेष के प्रसंगों में रत होना। जीवन में गृहस्थाश्रम रागद्वेष के प्रसंगों के विधान का केन्द्र है, अतः जिस धर्म में गृहस्थाश्रम (राग-द्वेष के प्रसंगों से युक्त अवस्था) का विधान किया गया हो, वह प्रवृत्ति-धर्म और जिस धर्म में (ऐसे) गृहस्थाश्रम का नहीं, परन्तु केवल त्याग का विधान किया गया हो, वह निवृत्ति-धर्म है। जैन-धर्म निवृत्ति-धर्म होने पर भी उसके पालन करने वालों में जो गृहस्थाश्रम का विभाग है, वह निवृत्ति की अपूर्णता के कारण है। सर्वांश निवृत्ति प्राप्त करने में असमर्थ व्यक्ति जितने अंशों में निवृत्ति का सेवन न कर सके, उन अंशों में अपनी परिस्थिति के अनुसार विवेकदृष्टि से प्रवृत्ति की मर्यादा कर सकते हैं, परन्तु उस प्रवृत्ति का विधान जैनशास्त्र नहीं करता, उसका विधान तो मात्र निवृत्ति का है । 28 इस प्रकार, इस संदर्भ में जहाँ गीता प्रवृत्तिपरक - निवृत्ति का विधान करती है, वहाँ बौद्ध और जैन- दर्शन निवृत्तिपरक प्रवृत्ति का विधान करते हैं, यद्यपि राग-द्वेष से निवृत्ति तीनों आचारदर्शनों को मान्य है । भोगवाद बनाम वैराग्यवाद - Jain Education International प्रवृत्ति और निवृत्ति का तात्पर्य यह भी लिया जाता है कि प्रवृत्ति का अर्थ है - बन्धन रूप भोग-मार्ग और निवृत्ति का अर्थ है - मोक्ष के हेतुरूप वैराग्य-मार्ग 129 भोगवाद और वैराग्यवाद नैतिक जीवन की दो विधाएँ हैं । इन्हीं को भारतीय औपनिषदिक - चिन्तन में प्रेयोमार्ग और श्रेयोमार्ग भी कहा गया है। कठोपनिषद् का ऋषि कहता है, जीवन में श्रेय और प्रेय- दोनों के ही अवसर आते रहते हैं। विवेकी पुरुष प्रेय की अपेक्षा श्रेय का ही वरण 157 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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