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________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग 155 समानता है, क्योंकि जो परमार्थ संन्यासी है, वह सब कर्म-साधनों का त्याग कर चुकता है, इसलिए सब कर्मों का और उनके फलविषयक संकल्पों का, जो कि प्रवृत्ति हेतुक काम के कारण हैं, त्याग करता है और इस प्रकार परमार्थ संन्यास की और कर्मयोग की कर्ता के भावविषयक त्याग की अपेक्षा से समानता है। गीता के एक अन्य प्रसंग की, जिसमें कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की विशेषता का प्रतिपादन किया है, आचार्य शंकर व्याख्या करते हैं कि ज्ञानरहित केवल संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग विशेष है। इस प्रकार, आचार्य शंकर यही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि गीता में ज्ञानसहित संन्यास तो निश्चय ही कर्मयोग से श्रेष्ठ माना गया है। उनके अनुसार, कर्मयोग तो ज्ञान-प्राप्ति का साधन है,20 लेकिन मोक्ष तो ज्ञानयोग से ही होता है और ज्ञाननिष्ठा के अनुष्ठान का अधिकार संन्यासियों का ही है। तिलक का कर्ममार्गीय-दृष्टिकोण-तिलक के अनुसार, गीता कर्ममार्ग की प्रतिपादक है। उनका दृष्टिकोण शंकर के दृष्टिकोण से विपरीत है। वे लिखते हैं कि इस प्रकार यह प्रकट हो गया कि कर्म-संन्यास और निष्काम कर्म-दोनों वैदिक-धर्म के स्वतन्त्र मार्ग हैं और उनके विषय में गीता का यह निश्चित सिद्धान्त है कि वे वैकल्पिक नहीं हैं, किन्तु संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की योग्यता विशेष है। वे गीता के इस कथन पर कि 'कर्म-संन्यास से कर्मयोग विशेष है '(कर्म संन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते) अत्यधिक भार देते हैं और उनको ही मूल-केन्द्र मानकर समग्र गीता के दृष्टिकोण को स्पष्ट करना चाहते हैं। उनका कहना है कि गीता स्पष्ट रूप से यह भी संकेत करती है कि बिना संन्यास ग्रहण किए हुए भी व्यक्ति परम-सिद्धि प्राप्त कर सकता है। गीताकार ने जनकादि का उदाहरण देकर अपनी इस मान्यता को परिपुष्ट किया है, 2 अतः गीता को गृहस्थधर्म या प्रवृत्तिमार्ग काही प्रतिपादक मानना चाहिए। ___ गीता का दृष्टिकोण समन्वयात्मक - गीता में प्रवृत्तिप्रधान गृहस्थधर्म और निवृत्ति-प्रधान संन्यासधर्म-दोनों स्वीकृत हैं। गीता के अधिकांश टीकाकार भी इस विषय में एकमत हैं कि गीता में दोनों प्रकार की निष्ठाएँ स्वीकृत हैं। दोनों से ही परमसाध्य की प्राप्ति संभव है। लोकमान्य तिलकलिखते हैं,ये दोनों मार्ग अथवा निष्ठाएँ ब्रह्मविद्यामूलक हैं। दोनों में मन की निष्कामावस्था और शान्ति (समत्ववृत्ति) एक ही प्रकार की है। इस कारण, दोनों मार्गों से अन्त में मोक्ष प्राप्त होता है। ज्ञान के पश्चात् कर्म को (अर्थात् गृहस्थ-धर्म को ) छोड़ बैठना और काम्य (आसक्तियुक्त) कर्म छोड़कर निष्काम कर्म (अनासक्तिपूर्वक व्यवहार) करते रहना, यही इन दोनों में भेद है। दूसरी ओर, आचार्य शंकर ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि संन्यास का वास्तविक अर्थ विशेष परिधान को धारण कर लेना अथवा गृहस्थ-कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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