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________________ 154 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन भी श्रेष्ठ होते हैं । " गृहस्थ के प्रवृत्यात्मक-जीवन और साधु के निवृत्यात्मक-जीवन के प्रति जैन-दृष्टि का यही सार है। उसे न गृहस्थजीवन की प्रवृत्ति का आग्रह है और न संन्यास-मार्ग की निवृत्ति का आग्रह है। उसे यदि आग्रह है, तो वह अनाग्रह का ही आग्रह है, अनासक्ति का ही आग्रह है। प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों ही उसे स्वीकार हैं - यदि वे इस अनाग्रह या अनासक्ति के लक्ष्य की यात्रा में सहायक हैं। गृहस्थ-जीवन और संन्यास के यह बाह्य-भेद उसकी दृष्टि में उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितनी साधक की मनःस्थिति एवं उनकी अनासक्तभावना है। वेशविशेष याआश्रम-विशेष का ग्रहणसाधना का सही अर्थ नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट निर्देश है, चीवर, मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, जीर्ण वस्त्र और मुण्डन, अर्थात् संन्यास-जीवन के बाह्य-लक्षणदुःशील की दुर्गति से रक्षा नहीं कर सकते। भिक्षुभी यदिदुराचारी हो, तो नरक से बच नहीं सकता। गृहस्थ हो अथवा भिक्षु, सम्यक् आचरण करनेवाला दिव्य लोकों को ही जाता है। गृहस्थहो अथवा भिक्षु, जो भी कषायों एवं आसक्ति से निवृत्त है एवं संयम एवं तपसे परिवत है, वह दिव्य स्थानों को ही प्राप्त करता है।13। गीताका दृष्टिकोण-वैदिक आचार-दर्शन में भी प्रवृत्तिक्रमशः गृहस्थ-धर्म और संन्यास-धर्म के अर्थ में गृहीत है। इस अर्थ-विवक्षा के आधार पर वैदिक-परम्परा में प्रवृत्ति और निवृत्ति का यथार्थ स्वरूपसमझने का प्रयास करने परज्ञात होता है कि वैदिक-परम्परा मूल रूप में चाहे प्रवृत्तिपरक रही हो, लेकिन गीता के युग तक उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के तत्त्व समान रूप से प्रतिष्ठित हो चुके थे। परमसाध्य की प्राप्ति के लिए दोनों को ही साधना का मार्ग मान लिया गया था। महाभारत शान्तिपर्व में स्पष्ट लिखा है कि प्रवृत्तिलक्षण-धर्म (गृहस्थ-धर्म) और निवृत्तिलक्षण-धर्म (संन्यास-धर्म)-यह दोनों ही मार्ग वेदों में समान रूप से प्रतिष्ठित हैं। 14 गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, हे निष्पाप अर्जुन! पूर्व में ही मेरे द्वारा जीवनशोधन की इन दोनों प्रणालियों का उपदेश दिया गया था। उनमें ज्ञानी या चिन्तनशील व्यक्तियों के लिए ज्ञानमार्ग या संन्यासमार्ग 15 का और कर्मशील व्यक्तियों के लिए कर्ममार्ग का उपदेश दिया गया है, यद्यपि गीता के टीकाकार उन दोनों में से किसी एक की महत्ता को स्थापित करने का प्रयास करते रहे हैं। शंकर का संन्यासमार्गीय-दृष्टिकोण-आचार्य शंकर गीता-भाष्य में गीता के उन समस्त प्रसंगों की, जिनमें कर्मयोग और कर्मसंन्यास-दोनों को समान बल वाला माना गया है, अथवा कर्मयोग की विशेषता का प्रतिपादन किया गया है, व्याख्या इस प्रकार प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं कि संन्यासमार्ग की श्रेष्ठता प्रतिष्ठापित हो। वे लिखते हैं, प्रवृत्तिरूप-कर्मयोग की निवृत्तिरूप-परमार्थ या संन्यास के साथ जो समानता स्वीकार की गई है, वह किसी अपेक्षा से ही है। परमार्थ (संन्यास) के साथ कर्मयोग की कर्तृ-विषयक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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