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________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग 149 साधना की पूर्णता के पश्चात् भी सक्रिय जीवन को आवश्यक मानती है, अतः कहा जा सकता है कि जैन-दर्शन में निवृत्ति को निष्क्रियता के अर्थ में स्वीकार नहीं किया गया है। यद्यपि जैन-साधना का लक्ष्य शुद्ध आध्यात्मिक-ज्ञानदशा के अतिरिक्त समस्त शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक-कर्मों की पूर्ण निवृत्ति है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में ऐसी निष्क्रियता कभी भी सम्भव नहीं है। वह मानती है कि जब तक शरीर है, तब तक शरीर-धर्मों की निवृत्ति सम्भव नहीं है। जीवन के लिए प्रवृत्ति नितान्त आवश्यक है, लेकिन मन, वचन और तन को अशुभ प्रवृत्ति में न लगाकरशुद्ध प्रवृत्ति में लगाना नैतिक-साधनाका सच्चा मार्ग है। मन, वचन एवं तन का अयुक्त आचरण ही दोषपूर्ण है, युक्त आचरण तो गुणवर्द्धक है। बौद्ध-दृष्टिकोण-बौद्ध आचार-दर्शन में भी पूर्ण निष्क्रियताकी सम्भावना स्वीकार नहीं की गई है। यही नहीं, ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनके आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि बौद्ध-साधना निष्क्रियता का उपदेश नहीं देती। विनयपिटक के चूलवग्ग में अर्हत् दर्भ विचार करते हैं कि मैंने अपने भिक्षु-जीवन के सातवें वर्ष में ही अर्हत्व प्राप्त कर लिया, मैंने वह सब ज्ञान भी प्राप्त कर लिया, जो किया जा सकता है, अब मेरे लिए कोई भी कर्त्तव्य शेष नहीं है, फिर भी मेरे द्वारा संघ की क्या सेवा हो सकती है ? यह मेरे लिए अच्छा कार्य होगा कि मैं संघ के आवास और भोजन का प्रबन्ध करूँ।वे अपने विचार बुद्ध के समक्ष रखते हैं और भगवान् बुद्ध उन्हें इस कार्य के लिए नियुक्त करते हैं ?' इतनाही नहीं, महायान-शाखा में तो बोधिसत्व काआदर्श अपनी मुक्ति की इच्छा नहीं रखता हुआ सदैव ही मन, वचन और तन से प्राणियों के दुःख दूर करने की भावना करता है। भगवान् बुद्ध के द्वारा बोधिलाभके पश्चात् किए गए संघ-प्रवर्तन एवं लोकमंगल के कार्य स्पष्ट बताते हैं कि लक्ष्य-विद्ध हो जाने पर भी नैष्कर्म्यता का जीवन जीना अपेक्षित नहीं है। बोधिलाभ के पश्चात् स्वयं बुद्ध भी उपदेश करने में अनुत्सुक हुए थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपने इस विचार को छोड़कर लोकमंगल के लिए प्रवृत्ति प्रारम्भ की। गीता का दृष्टिकोण-- गीता का आचार-दर्शन भी यही कहता है कि कोई भी प्राणी किसी भी काल में क्षणमात्र के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रहता। सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा परवश हुए कर्म करते ही रहते हैं। गीता का आचार-दर्शन तो साधक और सिद्ध-दोनों के लिए कर्ममार्ग का उपदेश देता है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है, इसलिए तूशास्त्रविधि से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तो शरीरनिर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा। बन्धन के भय से भी कर्मों का त्याग करना योग्य नहीं है। हे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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