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________________ 148 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन प्रवृत्ति और निवृत्ति सक्रियता एवं निष्क्रियता के अर्थ में निवृत्तिशब्द निः + वृत्ति-इन दोशब्दों के योग से बना है। वृत्ति से तात्पर्य कायिक, वाचिक और मानसिक-क्रियाएं हैं। वृत्ति के साथ लगा हुआ निस् उपसर्ग निषेध का सूचक है। इस प्रकार, निवृत्ति शब्द का अर्थ होता है-कायिक, वाचिक एवं मानसिक-क्रियाओं का अभाव । निवृत्तिपरकता का यह अर्थ लगाया जाता है कि कायिक, वाचिक और मानसिक-क्रियाओं के अभाव की ओर बढ़ना, उनको छोड़ना या कम करते जाना, जिसे हम कर्म-संन्यास कह सकते हैं। इस प्रकार, समझा यह जाता है कि निवृत्ति का अर्थ जीवन से पलायन है, मानसिक, वाचिक एवं कायिक-कर्मों की निष्क्रियता है, लेकिन भारतीय आचार-दर्शनों में से कोई भी निवृत्ति को निष्क्रियता के अर्थ में स्वीकार नहीं करता, क्योंकि कर्म-क्षेत्र में कायिक, वाचिक और मानसिक-क्रियाओं की पूर्ण निष्क्रियता सम्भव ही नहीं है। जैन-दृष्टिकोण - यद्यपि जैनधर्म में मुक्ति के लिए मन, वाणी और शरीर की वत्तियों का निरोध आवश्यक माना गया है, फिर भी उसमें विशुद्ध चेतना एवं शुद्ध ज्ञान की अवस्था पूर्ण निष्क्रियावस्था नहीं है। जैनधर्म तो मुक्तदशा में भी आत्मा में ज्ञान की अपेक्षा से परिणमनशीलता (सक्रियता) को स्वीकार कर पूर्ण निष्क्रियता की अवधारणा को अस्वीकार कर देता है। जहाँ तक दैहिक एवं लौकिक-जीवन की बात है, जैन-दर्शन पूर्ण निष्क्रिय अवस्था की सम्भावना को ही स्वीकार नहीं करता। कर्म-क्षेत्र में क्षणमात्र के लिए भी ऐसी अवस्था नहीं होती, जब प्राणी की मन, वचन और शरीर की समग्र क्रियाएं पूर्णतः निरुद्ध हो जाएं। उसके अनुसार, अनासक्त जीवन्मुक्त अर्हत् में भी इन क्रियाओं का अभाव नहीं होता। समस्त वृत्तियों के निरोध का काल ऐसे महापुरुषों के जीवन में भी एक क्षणमात्र का ही होता है, जबकि वे अपने परिनिर्वाण की तैयारी में होते हैं। मन, वचन और शरीर की समस्त क्रियाओं के पूर्ण निरोध की अवस्था (जिसे जैन पारिभाषिक-शब्दों में अयोगीकेवली-गुणस्थान कहा जाता है) की कालावधि पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण में लगने वाले समय के बराबर होती है। इस प्रकार, जीवनमुक्त अवस्था में भी इन क्षणों के अतिरिक्त पूर्ण निष्क्रियता के लिए कोई अवसर ही नहीं होता, फिर सामान्य प्राणी की बात ही क्या ?जब आत्मा कृतकार्य हो जाती है, तब भी वह अर्हतावस्था या तीर्थंकर-दशा में निष्क्रिय नहीं होती, वरन् संघ-सेवा और प्राणियों के आध्यात्मिक-विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहती है। तीर्थंकरत्व अथवाअर्हतावस्था प्राप्त करने के बाद संघ-स्थापना और धर्म-चक्रप्रवर्तन की सारी क्रियाएं लोकहित की दृष्टि से की जाती हैं, जो यही बताती हैं कि जैनविचारणा न केवल साधना के पूर्वांग के रूप में क्रियाशीलता को आवश्यक मानती है, वरन् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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