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के लिए निर्देश भी किया। मैं नहीं समझता हूँ कि केवल शाब्दिक आभार प्रकट करने मात्र से मैं उनके प्रति अपने दायित्व से उऋण हो सकता हूँ। जिनके चरणों में बैठकर दर्शन और आचार-विज्ञान का ज्ञान अर्जित कर सका और जिनकी प्रेरणा एवं जिनके सहयोग से यह महत् कार्य सम्पन्न कर सका, उनके प्रति कैसे आभार प्रकट करूं, यह मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। मैं तो मात्र उनके गुरुऋण के सूद की यह अंशिका, विनयवत् हो, उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रस्तुत गवेषणा के निर्देशक डॉ. सदाशिव बनर्जी का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिनकी आत्मीयता, सहयोग एवं निर्देशन से मैं लाभान्वित हुआ हूँ और जिनका मृदु, निश्छल एवं सरल स्वभाव सदैव ही उनके प्रति मेरी श्रद्धा का केन्द्र रहा है। विद्वत्वर्य डॉ. इन्द्रचन्द्र शास्त्री, देहली विश्वविद्यालय का भी मैं आभारी हूँ, जिन्होंने प्रस्तुत शोधकार्य के कुछ अंशों को सुनकर एवं मार्गनिर्देश देकर मुझे लाभान्वित किया है।
प्राकृत भारती संस्थान के सचिव श्री देवेन्द्रराज मेहता एवं श्री विनयसागरजी का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिनके सहयोग से प्रथम एवं इस द्वितीय संस्करण का प्रकाशन सम्भव हो सका है। आकृति ऑफसेट, उज्जैन ने जिस तत्परता और सुन्दरता से यह कार्य सम्पन्न किया है, उसके लिए उनके प्रति आभार व्यक्त करना भी मेरा कर्त्तव्य है । मित्रवर श्री जमनालालजी जैन ने इसकी प्रेस कापी तैयार करने में सहयोग प्रदान किया है, अतः उनके प्रति भी हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ । मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम परिवार के डॉ. हरिहर सिंह, श्री मोहनलालजी, श्री भिखारीराम यादव और श्री विजयकुमार जैन का आभारी हूँ, जिनसे विविध रूपों में सहायता प्राप्त होती रही है। इसी प्रकार इस द्वितीय संस्करण का प्रुफरीडिंग का कार्य श्री चैतन्यजी सोनी ने किया अत: उनका भी आभार। अन्त में, पत्नी श्रीमती कमला जैन का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिसके त्याग एवं सेवाभाव ने मुझे पारिवारिकउलझनों से मुक्त रखकर विद्या की उपासना का अवसर दिया।
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इस सम्पूर्ण प्रयास में मेरा अपना कुछ भी नहीं है, सभी कुछ गुरुजनों का दिया हुआ है, इसमें मैं अपनी मौलिकता का भी क्या दावा करूँ ? मैंने तो अनेकानेक महापुरुषों, ऋषियों, सन्तों, विचारकों एवं लेखकों के शब्द एवं विचार - सुमनों का संचय कर माँ सरस्वती के समर्पण के हेतु इस माला का ग्रथन किया है, इसमें जो कुछ मानव के लिए उत्तम हितकारक एवं कल्याणकारक तत्त्व हैं, वे सब उनके हैं। हाँ, यह संभव है कि मेरी अल्पमति एवं मलिनता के कारण इसमें दोष आ गए हों, उन दोषों का उत्तरदायित्व मेरा अपना है। यदत्र सौष्ठवं किंचित्तद्गुवोरेव मे न हि । यदत्रासौष्ठवं किंचित्तन्ममैव तयोर्न हि ॥
वीर निर्वाण दिवस - दीपावली
15 नवम्बर, 1982
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सागरमल जैन
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