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________________ सम्यक्-तप तथा योग-मार्ग 137 आसनों की साधना एवं शीत एवं ताप सहन करने की धारणा बौद्ध-विचारणा में उतनी कठोर नहीं है, जितनी जैन-विचारणा में। (4) भिक्षाचर्या जैन और बौद्ध-दोनों आचारप्रणालियों में स्वीकृत है, यद्यपि भिक्षा-नियमों की कठोरता जैन-साधना में अधिक है। (5) विविक्त-शयनासन-तप भी बौद्ध-विचारणा में स्वीकृत है। बौद्ध-आगमों में अरण्यनिवास, वृक्षमूल-निवास, श्मशान-निवास करने वाले (जैन-परिभाषा के अनुसार विविक्त-शयनासन-तप करने वाले) धुतंग-भिक्षुओं की प्रशंसा की गई है।आभ्यन्तरिकतप के छह भेद भी बौद्ध-परम्परा में स्वीकृत रहे हैं । (6) प्रायश्चित्त बौद्ध-परम्परा और वैदिक-परम्परा में स्वीकृत रहा है। बौद्ध-आगमों में प्रायश्चित्त के लिए प्रवारणा आवश्यक मानी गई है। (7) विनय के सम्बन्ध में दोनों ही विचार-परम्पराएँ एकमत हैं। (8) बौद्धपरम्परा में भी बुद्ध, धर्म, संघ, रोगी, वृद्ध एवं शिक्षार्थी-भिक्षुक की सेवा का विधान है। (9) इसी प्रकार, स्वाध्याय एवं उसमें विभिन्न अंगों का विवेचन भी बौद्ध-परम्परा में उपलब्ध है। बुद्ध ने भी वाचना, पृच्छना, परावर्तना एवं चिन्तन को समान महत्व दिया है। (10)व्युत्सर्ग के सम्बन्ध में यद्यपि बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यममार्गी है, तथापिवे इसे अस्वीकार नहीं करते हैं। व्युत्सर्ग के आन्तरिक-प्रकार तो बौद्ध-परम्परा में भी उसी प्रकार स्वीकृत रहे हैं, जिस प्रकार वे जैन-दर्शन में हैं। (11) ध्यान के सम्बन्ध में बौद्ध-दृष्टिकोण भी जैनपरम्परा के निकट ही आता है। बौद्ध-परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने गए हैं 1. सवितर्क-सविचार-विवेकजन्य-प्रीतिसुखात्मक प्रथम ध्यान। 2. वितर्क-विचार-रहित-समाधिज-प्रीतिसुखात्मक द्वितीय ध्यान। 3. प्रीति और विराग से उपेक्षक हो स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उपेक्षा-स्मृति सुखविहारी तृतीय ध्यान। 4.सुख-दुःख एवं सौमनस्य-दौर्मनस्य से रहित असुख-अदुःखात्मक उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त चतुर्थ ध्यान। इस प्रकार, चारों ध्यान जैन-परम्परा में भी थोड़े शाब्दिक-अन्तर के साथ उपस्थित हैं । योग-परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाए हैं, जो कि जैन-परम्परा के समान ही लगते हैं। समापत्ति के चार प्रकार निम्नानुसार हैं- 1. सवितर्का, 2. निर्वितर्का, 3. सविचारा, 4. निर्विचारा। इस विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन साधना में जिस सम्यक् तप का विधान है, वह अन्य भारतीय आचारदर्शनों में भी सामान्यतया स्वीकृत रहा है। ____ जैन, बौद्ध और गीता की विचारणा में जिस सम्बन्ध में मतभिन्नता है, वह हैअनशन या उपवास-तप।बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन उपवासों की लम्बी तपस्या को इतनामहत्व नहीं देते, जितना कि जैन-विचारणा देती है। इसका मूलकारण यह है कि बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन तपकी अपेक्षायोगको अधिक महत्व देते हैं, यद्यपि यह स्मरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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