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भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
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जैन - परम्परा में ध्यान के चार प्रकार हैं- 1. आर्त्त-ध्यान, 2. रौद्र-ध्यान, 3. धर्मध्यान और 4. शुक्लध्यान । आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान चित्त की दूषित प्रवृत्तियाँ हैं, अतः साधना एवं तप की दृष्टि से उनका कोई मूल्य नहीं है, ये दोनों ध्यान त्याज्य हैं। आध्यात्मिक-साधना की दृष्टि से धर्मध्यान और शुक्लध्यान- ये दोनों महत्वपूर्ण हैं, अतः इन पर थोड़ी विस्तृत चर्चा
करना आवश्यक है ।
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धर्म-ध्यान- इसका अर्थ है चित्त-विशुद्धि का प्रारम्भिक अभ्यास | धर्म- ध्यान के लिए ये चार बातें आवश्यक हैं- 1. आगम-ज्ञान, 2. अनासक्ति, 3. आत्मसंयम और मुमुक्षुभाव | धर्म- ध्यान के चार प्रकार हैं
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1. आज्ञा-विचय: आगम के अनुसार तत्त्व-स्वरूप एवं कर्तव्यों का चिन्तन करना ।
2. अपाय - विचय : हेय क्या है, इसका विचार करना ।
3. विपाक-विचय : हेय के परिणामों का विचार करना ।
4. संस्थान -विचय : लोक या पदार्थों की आकृतियों, स्वरूपों का चिन्तन करना। संस्थान-विचयधर्म-ध्यान पुनः चार उपविभागों में विभाजित है - (अ) पिण्डस्थ - ध्यान - यह किसी तत्त्व-विशेष के स्वरूप के चिन्तन पर आधारित है। इसकी पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्वभू-ये पाँच धारणाएँ मानी गई हैं। ( ब ) पदस्थ - ध्यान - यह ध्यान पवित्र मंत्राक्षर आदि पदों का अवलम्बन करके किया जाता है। (स) रूपस्थ - ध्यान - राग, द्वेष, मोह आदि विकारों से रहित अर्हन्त का ध्यान करना है। (द) रूपातीत ध्याननिराकार, चैतन्य-स्वरूप सिद्ध परमात्मा का ध्यान करना ।
शुक्ल - ध्यान - यह धर्म- ध्यान के बाद की स्थिति है। शुक्लध्यान के द्वारा मन को शान्त और निष्प्रकम्प किया जाता है। इसकी अन्तिम परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध है । शुक्ल - ध्यान चार प्रकार का है - ( 1 ) पृथक्त्व - वितर्क - सविचार - इस ध्यान में ध्याता कभी अर्थ का चिन्तन करते-करते शब्द का और शब्द का चिन्तन करतेकर अर्थ का चिन्तन करने लगता है। इस ध्यान में अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय-द्रव्य एक ही रहता है। (2) एकत्व - वितर्क - अविचारी - अर्थ, व्यंजन और योग-संक्रमण से रहित, एक पर्याय-विषयक ध्यान एकत्व - श्रुत- अविचार ध्यान कहलाता है । (3) सूक्ष्मक्रिया - अप्रतिपाती - मन, वचन और शरीर - व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया के शेष रहने पर ध्यान की यह अवस्था प्राप्त होती है। (4) समुच्छिन्न-क्रिया - निवृत्ति - जब मन, वचन और शरीर की समस्त प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है और कोई भी सूक्ष्म क्रिया शेष नहीं रहती, उस अवस्था को समुच्छिन्न-क्रिया - शुक्लध्यान कहते हैं। इस प्रकार, शुक्लध्यान की प्रथम अवस्था से क्रमशः आगे बढ़ते हुए अन्तिम अवस्था में साधक कायिक, वाचिक और मानसिक, सभी प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध कर अन्त में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेता है, जो कि नैतिक-साधना और योगसाधना का अन्तिम लक्ष्य है। 45
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