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________________ सम्यक्-तप तथा योग-मार्ग 131 की आवश्यकता निद्रा एवं इन्द्रियों के संयम के लिए तथा तप एवं षट् आवश्यकों के पालन के लिए है। ___3. रस-परित्याग-भोजन में दूध, दही, घृत, तेल, मिष्ठान्न आदि सबका या उनमें से किसी एक का ग्रहण न करना रस-परित्याग-तप है । रस-परित्याग स्वाद-जय है। नैतिक-जीवन की साधना के लिए स्वाद-जय आवश्यक है। महात्मा गांधी ने ग्यारह व्रतों काविधान किया, उसमें अस्वादभी एक व्रत है। रस-परित्याग का तात्पर्य यह है कि साधक स्वाद के लिए नहीं, वरन् शरीर-निर्वाह अथवा साधना के लिए आहार करता है। 4. भिक्षाचर्या - भिक्षा-विषयक विभिन्न विधि-नियमों का पालन करते हुए भिक्षान्न पर जीवन-यापन करना भिक्षाचर्या-तप है। इसे वृत्तिपरिसंख्यान भी कहा गया है। इसका बहुत कुछ सम्बन्ध भिक्षुक-जीवन से है। भिक्षा के सम्बन्ध में पूर्व निश्चय कर लेना और तदनुकूल ही भिक्षा ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है। इसे अभिग्रह-तप भी कहा गया है। 5. कायक्लेश-वीरासन, गोदुहासनआदि विभिन्न आसन करना, शीत या उष्णता सहन करने का अभ्यास करना कायक्लेश-तप है। कायक्लेश-तप चार प्रकार का है- 1. आसन, 2. आतापना - सूर्य की रश्मियों का ताप लेना, शील को सहन करना एवं अल्पवस्त्र अथवा निर्वस्त्र रहना। 3. विभूषा का त्याग, 4. परिकर्म-शरीर की साज-सज्जा का त्याग। 6.संलीनता-संलीनता चार प्रकार की है-1. इन्द्रिय-संलीनता- इन्द्रियों के विषयों से बचना, 2. कषाय-संलीनता-क्रोध, मान, मायाऔर लोभसे बचना, 3. योगसंलीनता-मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों से बचना, 4. विविक्त-शयनासन-एकांत स्थान पर सोना-बैठना। सामान्य रूप से यह माना गया है कि कषाय एवं राग-द्वेष के बाह्यनिमित्तों से बचने के लिए साधक को श्मशान, शून्यागार और वन के एकान्त स्थानों में रहना चाहिए। आभ्यन्तर-तपके भेद आभ्यन्तर-तप को सामान्य जनता तप के रूप में नहीं जानती है, फिर भी उसमें तप का एक महत्वपूर्ण और उच्च पक्ष निहित है। बाह्य-तपस्थूल है, जबकि अन्तरंग-तपसूक्ष्म है। आभ्यन्तर-तप के भी छह भेद हैं। 1. प्रायश्चित्त - अपने अशुभ आचरण के प्रति ग्लानि प्रकट करना, उसका पश्चाताप करना, आलोचना करना, उसे वरिष्ठ गुरुजन के समक्ष प्रकट कर उसके लिए योग्य दण्ड की याचना कर, उनके द्वारा दिए गए दण्ड को स्वीकार करना, प्रायश्चित्त-तप है। प्रायश्चित्त के अभाव में सदाचरण सम्भव नहीं है, क्योंकि गलती या दोष होना सामान्य मानव-प्रकृति है, लेकिन यदि उसका निराकरण नहीं किया जाता, तो उस गलती का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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