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________________ सम्यक्चारित्र (शील) 111 उसे बाह्यमल कहा गया है। स्वभावतः, नीचे की ओर बहने वाला पानी दबाव से ऊपर चढ़ने लगता है, स्वभाव से शीतल जल अग्नि के संयोग से उष्णता को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार, आत्मा या चित्त स्वभाव से शुद्ध होते हुए भी त्रिगुणों, कर्मों या बाह्यमलों से अशुद्ध बन जाता है, लेकिन जैसे ही दबाव समाप्त होता है, पानी स्वभावतः नीचे की ओर बहने लगता है, अग्नि का संयोग दूर होने पर जल शीतल होने लगता है। ठीक इसी प्रकार, बाह्यसंयोगों से अलग होने पर यह आत्मा या चित्त पुनः अपनी स्वाभाविक समत्वपूर्ण अवस्थाको प्राप्त हो जाता है। सम्यक्-आचरण या चारित्र का कार्य इन संयोगों से आत्मा या चित्त को अलग रखकर स्वाभाविक समत्व की दिशा में ले जाना है। जैन आचार-दर्शन में सम्यक्चारित्र का कार्य आत्मा के समत्व का संस्थापन माना गया है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि चारित्र ही वास्तव में धर्म है, जो धर्म है, वह समत्व है और मोह एवं क्षोभ से रहित आत्मा की शुद्ध दशा को प्राप्त करना समत्व है।' पंचास्तिकायसार में इसे अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि समभाव ही चारित्र है। चारित्र के दो रूप-जैन-परम्परा में चारित्र दो प्रकार निरूपित है-1. व्यवहारचारित्र और 2. निश्चय-चारित्र । आचरण का बाह्य-पक्ष या आचरण के विविध विधान व्यवहारचारित्र है और आचरण का भावपक्ष या अन्तरात्मा निश्चयचारित्र है। जहाँ तक नैतिकता के वैयक्तिक-दृष्टिकोण का प्रश्न है, अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक-विकास का प्रश्न है, निश्चयचारित्र ही उसका मूलभूत आधार है, लेकिन जहाँ तक सामाजिक-जीवन का प्रश्न है, चारित्र का यह बाह्यपक्ष ही प्रमुख है। निश्चयदृष्टिसेचारित्र-चारित्र का सच्चास्वरूप समत्वकी उपलब्धि है। चारित्र का यह पक्ष आत्मरमण ही है। निश्चयचारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त-अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त-चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शान्त हो जाती है, तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक-जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। अप्रमत्त-चेतना, जो कि निश्चय-चारित्र का आधार है, राग, द्वेष, कषाय, विषयवासना, आलस्य और निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य-आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है. तभी वह सच्चे अर्थों में निश्चयचारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यही निश्चय-चारित्र मुक्ति का सोपान है। व्यवहारचारित्र-व्यवहारचास्त्रि का सम्बन्ध हमारे मन, वचन और कर्म की शुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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