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________________ 92 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन 20. पाश्चात्य-आचारदर्शन की अध्ययनविधियाँ और जैन-दर्शन पाश्चात्य-नीतिवेत्ताओं ने आचारदर्शन की विभिन्न समस्याओं के सम्यक् अध्ययन के लिए जिन विधियों का आश्रय लिया है, उन्हें दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है(1) अनुभवमूलक विधियाँ और (2) दार्शनिक विधियाँ। पाश्चात्य-आचारदर्शन में अनुभवमूलक विधियाँ तीन हैं 1. जैविक-विधि- इस अध्ययनविधि को मानने वाले विचारकों में हर्बर्ट स्पेन्सर प्रमुख हैं। ये विचारक नैतिक नियमों को सामाजिक नियमों पर, सामाजिक नियमों को मनोवैज्ञानिक नियमों पर, मनोवैज्ञानिक नियमों को जैविक नियमों पर और जैविक नियमों को भौतिक नियमों पर अधिष्ठित मानते हैं। इस प्रकार इनके अनुसार नैतिक नियम अन्ततोगत्वा जैविक एवं भौतिक नियमों से ही निर्गमित होते हैं। यह विधि आचारदर्शन को प्रकृत एवं विधायक विज्ञान के रूप में देखती है और उसकी नियामक एवं आदर्शमूलक प्रकृति को अपनी दृष्टि से ओझल कर देती है। इस प्रकार, यह विधि आचारदर्शन के निर्धान्त अध्ययन के लिए एकांगी सिद्ध होती है। 2. ऐतिहासिक विधि- इस अध्ययनविधि को मानने वाले विचारकों में विकासवादी दार्शनिक एवं कार्ल मार्क्स आते हैं। इनके अनुसार, नैतिक-प्रत्ययों एव नियमों का विकास आदि असंस्कृत रीतिरिवाजों से हुआ है। नैतिकता सामाजिक-उत्क्रांति का परिणाम है और नीतिशास्त्र का कार्य नैतिक-प्रत्ययों की उत्पत्ति और विकास की व्याख्या प्रस्तुत करना है। ये विचारक भी नीतिशास्त्र को समाज का प्रकृत इतिहास बनाकर उसकी नियामक या आदर्शमूलक प्रकृति पर ध्यान नहीं देते हैं। नीतिशास्त्र का कार्य नैतिक नियमों की उत्पत्ति की व्याख्या करना नहीं, वरन् नैतिक आदर्श को प्रस्तुत करना भी है। __3. मनोवैज्ञानिक विधि- इस विधि के द्वारा नैतिक-प्रत्ययों की व्याख्या करने वाले विचारकों का एक वर्ग, जिसमें कार्नेप, एयर, रसल, स्टीवेन्सन आदि तार्किक भाववादी विचारक आते हैं, शुभ एवं उचित के नैतिक-प्रत्ययों को मनोवैज्ञानिक एवं सांवेगिक-अभिव्यक्तियों के रूप में देखता है। यह वर्ग नैतिकता के आदर्शमूलक स्वरूप को नष्ट कर नैतिक-सन्देहवादको जन्म देता है।मनोवैज्ञानिक विधि को महत्व देने वाला दूसरा वर्ग नैतिक तथ्यों को चेतनागत मानता है और इसलिए यह कहता है कि नैतिक-प्रत्ययों के सम्यक् अध्ययन के लिए मनोवैज्ञानिक-पद्धति का अनुसरण करना चाहिए, तथापि इन विचारकों के अनुसार नैतिक-प्रत्यय मूलत: आदर्शमूलक हैं। ये विचारक नैतिकता की आदर्शमूलक प्रकृति को अस्वीकार नहीं करते हैं, मात्र मानव के परममंगल का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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