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________________ भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन ज्ञ में प्रदान करती है। जैन आगमों के अनुसार पहली को व्यवहारनय कहते हैं और दूसरी को निश्चयनय । व्यवहारदृष्टि स्थूलतत्त्वग्राही है, जो यह बताती है कि तत्त्व या सत्ता को जनसाधारण किस रूप में समझता है।' निश्चयदृष्टि सूक्ष्मतत्त्वग्राही है, जो सत्ता के बुद्धिप्रदत्त वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराती है, 2 जैसे पृथ्वी सपाट एवं स्थिर है - यह व्यवहारदृष्टि है, क्योंकि हमारा लोक-व्यवहार ऐसा ही मानकर चलता है और पृथ्वी गोल एवं गतिशील है, यह निश्चयदृष्टि है, अर्थात् वह उसका वास्तविक स्वरूप है। दोनों में से किसी को भी यथार्थ तो कहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि एक इन्द्रियप्रतीति के रूप में सत्य है और दूसरा बुद्धिनिष्पन्न सत्य है। सत् के विषय में ये दो दृष्टियाँ हैं, दोनों ही अपनेअपने क्षेत्र में सत्य हैं, यद्यपि दोनों में से कोई भी अकेले स्वतन्त्र रूप में सत् का पूर्ण स्वरूप प्रकट नहीं करती है। 2. 70 जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान की विधाएँ - जैसा कि ऊपर कहा गया है, जैन दार्शनिक सत् के सम्बन्ध में दो दृष्टिकोण लेकर चलते हैं - निश्चयनय और व्यवहारनय । जैन दर्शन के अनुसार, 'सत् अपने-आप में एक पूर्णता है, अनन्तता है । इन्द्रियानुभूति, बुद्धि, भाषा और वाणी अपनी सीमा में अनन्त के एकांश का ही ग्रहण कर पाती हैं। वही एकांश का बोध नय (दृष्टिकोण) कहलाता है। 3 सत् के अनन्त पक्षों को जिन-जिन दृष्टिकोणों से देखा जाता है, वे सभी नय कहे जाते हैं। दृष्टिकोणों के सम्बन्ध में जैन- दार्शनिकों का कहना है कि सत् की अभिव्यक्ति के लिए भाषा के जितने प्रारूप (कथन के ढंग) हो सकते हैं, उतने ही नय के भेद हैं। " जैनदार्शनिकों के अनुसार, 'जितने नय के भेद हो सकते हैं, उतने ही वाद या मतान्तर अथवा दृष्टिकोण होते हैं।'' वैसे तो जैन-दर्शन में नयों की संख्या अनन्त मानी गई है, लेकिन फिर भी मोटे तौर पर नयों के सात और दो भेद किए गए हैं। हमने सप्तविध वर्गीकरण को अपने विवेचन का विषय न बनाकर द्विविध वर्गीकरण को ही विवेचन का आधार बनाया है । उसका एकमात्र कारण यही है कि सप्तविध वर्गीकरण का सम्बन्ध आचारदर्शन की अपेक्षा ज्ञानमीमांसा से अधिक है। दूसरे, द्विविध वर्गीकरण ऐसा वर्गीकरण है, जिसमें अन्य सभी वर्गीकरण अन्तर्भूत हैं। निश्चयनय और व्यवहारनय में सभी नयों का अन्तर्भाव हो जाता है । ' भगवतीसूत्र में व्यवहारदृष्टि और निश्चयदृष्टि का प्रतिपादन बड़े ही रोचक ढंग से हुआ है। गौतम महावीर से पूछते हैं, 'भन्ते ! प्रवाही गुड़ में कितने रस, वर्ण, गन्ध और स्पर्श होते हैं ?' महावीर कहते हैं, 'है गौतम ! मैं इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से देता हूँ। व्यवहारनय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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