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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
और 8. अधिकार (प्रभुता)। इन आठ प्रकार की श्रेष्ठताओं का अहंकार करना गृहस्थ एवं साधु-दोनों के लिए सर्वथा वर्जित है। इन्हें मद भी कहा गया है।
मान निम्न बारह रूपों में प्रकट होता है : 1.मान- अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति, 2. मद- अहंभाव में तन्मयता, 3. दर्प- उत्तेजना-पूर्ण अहंभाव, 4. स्तम्भ- अविनम्रता, 5. गर्व- अहंकार, 6. अत्युक्रोश- अपने को दूसरे से श्रेष्ठ कहना, 7. परपरिवादपरनिन्दा, 8. उत्कर्ष-अपना ऐश्वर्य प्रकट करना, 9. अपकर्ष-दूसरों को तुच्छ समझना, 10. उन्नतनाम- गुणी के सामने भी न झुकना, 11. उन्नत- दूसरों को तुच्छ समझना, 12. पुर्नाम- यथोचित रूप से न झुकना।
अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के अनुसार मान के भी चार भेद हैं__ 1. अनंतानुबन्धी-मान- पत्थर के खम्भे के समान जो झुकता नहीं, अर्थात् जिसमें विनम्रता नाममात्र को भी नहीं है।
2. अप्रत्याख्यानी-मान- हड्डी के समान कठिनता से झुकने वाला, अर्थात् जो विशेष परिस्थितियों में बाह्य-दबाव के कारण विनम्र हो जाता है।
3. प्रत्याख्यानी-मान- लकड़ी के समान थोड़े से प्रयत्न से झुक जाने वाला, अर्थात् जिसके अन्तर में विनम्रता तो होती है, लेकिन जिसका प्रकटन विशेष स्थिति में ही होता है।
4. संज्वलन-मान- बेंत के समान अत्यन्त सरलता से झुक जाने वाला, अर्थात् जो आत्म-गौरव को रखते हुए भी विनम्र बना रहता है। माया
कपटाचार माया-कषाय है। भगवतीसूत्र के अनुसार इसके पन्द्रह नाम हैं। - 1. माया- कपटाचार, 2. उपाधि- ठगने के उद्देश्य से व्यक्ति के पास जाना, 3. निकृतिठगने के अभिप्राय से अधिक सम्मान देना, 4. वलय- वक्रतापूर्ण वचन, 5. गहन-ठगने के विचार से अत्यन्त गूढ़ भाषण करना, 6. नूम- ठगने के हेतु निकृष्ट कार्य करना, 7. कल्क- दूसरों को हिंसा के लिए उभारना, 8. करूप- निन्दित व्यवहार करना, 9. निह्नता- ठगाई के लिए कार्य मन्द गति से करना, 10. किल्विणिक- भांडों के समान कुचेष्टा करना, 11. आदरणता- अनिच्छित कार्य भी अपनाना, 12. गूहनता- अपनी करतूत को छिपाने का प्रयत्न करना, 13. वंचकता- ठगी, 14. प्रति-कुंचनता- किसी के सरल रूपसे कहे गए वचनों का खण्डन करना, 15. सातियोग- उत्तम वस्तु में हीन वस्तु की मिलावट करना। यह सब माया की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं।
माया के चार प्रकार-1.अनंतानुबन्धी-माया (तीव्रतम कपटाचार)- अतीव
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