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________________ मनोवृत्तियाँ (कषाय एवं लेश्याएँ) 525 18 Sha मनोवृत्तियाँ (कषाय एवं लेश्याएँ.) जैन-दर्शन में मनोवृत्तियों के विषय में दो प्रमुख सिद्धान्त हैं- 1. कषाय-सिद्धान्त और 2. लेश्या-सिद्धान्त। कषाय-सिद्धान्त में चित्त-क्षोभ को उत्पन्न करने वाली अशुभ मनोवृत्तियों या मनोवेगों का प्रतिपादन है और लेश्या-सिद्धान्त का सम्बन्ध शुभ एवं अशुभदोनों प्रकार की मनोवृत्तियों से है। कषाय-सिद्धान्त समूचा जगत् वासना से उत्पन्न कषाय की अग्नि से झुलस रहा है, अतएव शान्तिमार्ग के पथिक साधक के लिए कषाय का त्याग आवश्यक है। जैन-सूत्रों में साधक वं कषायों से सर्वथा दूर रहने के लिए कहा गया है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है हि अनिग्रहित क्रोध और मान तथा बढ़ती हुई माया तथा लोभ-ये चारों संसार बढ़ाने-वाल. कषायें पुनर्जन्मरूपी वृक्ष का सिंचन करती हैं, दुःख का कारण हैं, अत: शान्ति का साधक उन्हें त्याग दे। __ कषाय का अर्थ- कषाय जैनधर्म का पारिभाषिक-शब्द है। यह 'कष' और 'आय'-इन दो शब्दों के मेल से बना है। कष' काअर्थ है-संसार, कर्म अथवा जन्ममरण। जिसके द्वारा प्राणी कर्मों से बांधा जाता है, अथवा जिससे जीव पुन:-पुन: जन्ममरण के चक्र में पड़ता है, वह कषाय है। जो मनोवृत्तियाँ आत्मा को कलुषित करती हैं, उन्हें जैनमनोविज्ञान की भाषा में कषाय कहा जाता है। कषाय अनैतिक-मनोवृत्तियाँ हैं। कषाय की उत्पत्ति- वासना याधर्म-संस्कार से राग-द्वेष और राग-द्वेष सेकषाय उत्पन्न होते हैं। स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि पाप-कर्म के दो स्थान हैं- राग और द्वेष। राग सेमाया और लोभ तथा द्वेष से क्रोध और मान उत्पन्न होते हैं। राग-द्वेष का कषायों से क्या सम्बन्ध है, इसका वर्णन विशेषावश्यकभाष्य में विभिन्न नयों (दृष्टिकोणों) के आधार पर किया गया है। संग्रहनय के विचार से क्रोध और मान द्वेषरूप हैं, जबकि माया और लोभ रागरूप हैं, क्योंकि प्रथम दो में दूसरे कीअहित-भावना है और अन्तिमदो में अपनी स्वार्थसाधना का लक्ष्य है। व्यवहारनय की दृष्टि से क्रोध, मान और माया-तीनों द्वेषरूप हैं, क्योंकि माया भी दूसरे के विघात का विचार ही है। केवल लोभ अकेला रागात्मक है, क्योंकि उसमें ममत्वभाव है। ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से केवल क्रोध ही द्वेषरूप है। शेष कषायत्रिक को ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से न तो केवल राग-प्रेरित कहा जा सकता है, न केवल द्वेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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