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मन का स्वरूप तथा नैतिक-जीवन में उसका स्थान
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के दमन एवं मनोनिग्रह को मानसिक-समत्व का हेतु न मानकर उसके ठीक विपरीत, उसे चित्त-विक्षोभ का कारण मानता है। दमन, निग्रह, निरोध आज की मनोवैज्ञानिक-धारणा में मानसिक संतुलन को भंग करने वाले माने गए हैं। फ्रायड, एडलर, युंग आदिने व्यक्तित्व के विघटन एवं मनोविकृतियों का कारण दमन और प्रतिरोध ही माना है। आधुनिक मनोविज्ञान की इस मान्यता को झुठलाया भी नहीं जा सकता कि इच्छा-निरोध और मनोनिग्रह मानसिक-स्वास्थ्य के लिए अहितकर हैं। यही नहीं, इच्छाओं के दमन में जितनी अधिक तीव्रता होती है, वे दमित इच्छाएँ उतने ही वेग से विकृत रूप में प्रकट होकर केवल अपनी ही पूर्ति का प्रयास ही नहीं करती हैं, वरन् मनुष्य के व्यक्तित्व को भी विकृत बना देती हैं। यदिहम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं, तो फिर नैतिक-जीवन से इस दमन की धारणा को ही समाप्त कर देना होगा।
समालोच्य आचार-दर्शनों में दमनकीअनौचित्यता- प्रश्न उठता है कि क्या भारतीय नीति-निर्माताओं की दृष्टि से यह तथ्य ओझल था? बात ऐसी नहीं है। जैन, बौद्ध
और गीता के आचार-दर्शन की दृष्टि में दमनों के अनौचित्य की धारणाअत्यन्त स्पष्ट थी, जिसे सप्रमाण प्रस्तुत किया जा सकता है।
जैन-दर्शन में मनोनिग्रह का अनौचित्य- जैन-परम्परा अपने पारिभाषिकशब्दों में स्पष्ट रूप से कहती है कि साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं, वरन् क्षायिक है। जैन-दृष्टिकोण के अनुसार औपशमिक-मार्ग वह मार्ग है, जिसमें मन की वृत्तियों या निहित वासनाओं को दबाकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ा जाता है। इच्छाओं के निरोध का मार्ग ही औपशमिक-मार्ग है। जैसे आग को राख से ढक दिया जाता है, वैसे ही उपशम में कर्म-संस्कार या वासना-संस्कार को दबाते हुए नैतिकता के मार्ग पर आगे बढ़ा जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में यह दमन का मार्ग है। साधना के क्षेत्र में भी वासनासंस्कार को दबाकर आगे बढ़ने का मार्ग दमन का मार्ग है। यह मन की शुद्धि का वास्तविक मार्ग नहीं है। यह तो मानसिक-गंदगी को ढकना या छिपाना मात्र है। जैन-विचारकों ने गुणस्थान-प्रकरण में बताया है कि वासनाओं को दबाकर आगे बढ़ने की यह अवस्था नैतिक-विकास में आगे तक नहीं चलती है। ऐसा साधक विकास की अग्रिम कक्षाओं से अनिवार्यतया पदच्युत हो जाता है। जिस दमन को आधुनिक मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के विकास में बाधक माना गया है, वही विचारणा जैनदर्शन में भी मौजूद थी।जैन-विचारणा के अनुसार यदि कोई साधक उपशम (दमन) के आधार पर नैतिक तथा आध्यात्मिकप्रगति करता है, तो वह अपने लक्ष्य के अत्यधिक निकट पहुँचकर भी पुन: पतित हो जाता
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