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________________ 508 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन होने के सन्दर्भ में एक परिष्कृत समानान्तरवाद प्रस्तुत किया है, जो व्यक्ति के मन और शरीर के सम्बन्ध में एक प्रकार का मनोभौतिक-समानान्तरवाद है, जबकि वे मानसिक और शारीरिक-तथ्यों के मध्य होने वाली पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया को उपेक्षित नहीं करते। उनका सिद्धान्त समानान्तरवाद से भी परे जाता है और शरीर तथा आत्मा के मध्य अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध की अवधारणा को स्वीकार करता है। उनका द्रव्यमन और भावमन का सिद्धान्त इस क्रिया-प्रतिक्रिया की धारणा को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करता है। जैनदृष्टिकोण जड़ और चैतन्य के मध्य पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया की धारणाको संस्थापित करता है।' नैतिक-चेतना में मन कास्थान-भारतीय आचार-दर्शन जीवात्मा के बन्धन और मुक्ति की समस्या की एक विस्तृत व्याख्या है। भारतीय-चिन्तकों ने केवल मुक्ति की उपलब्धि के हेतु आचरण-मार्ग का उपदेश ही नहीं दिया, वरन् उन्होंने यह बताने का भी प्रयास किया कि बन्धन और मुक्ति का मूल कारण क्या है ? अपने चिन्तन और अनुभूति के प्रकाश में उन्होंने इस प्रश्न का जो उत्तर पाया है, वह है- मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। जैन, बौद्ध तथा वैदिक आचार-दर्शनों में यह तथ्य सर्वसम्मत रूप से ग्राह्य है। जैन-दृष्टिकोण- जैन-दर्शन में बन्धन और मुक्ति की दृष्टि से मन की अपार शक्ति मानी गई है। बन्धन की दृष्टि से वह पौराणिक-ब्रह्मास्त्र से भी भयंकर है। कर्मसिद्धान्त का एक विवेचन है कि मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बन्ध उत्कृष्ट रूप में एक सागर' की स्थिति का हो सकता है। वचनयोग मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बन्ध हो सकता है। घ्राणेन्द्रिय, अर्थात् नासिका के मिलने पर पचास सागर और चक्षु के मिलते ही सौ सागर की स्थिति का बन्ध हो सकता है और जब अमनस्क पंचेन्द्रिय की दशा में कान मिलते हैं, तो हजार सागर तक का बन्ध हो सकता है, लेकिन यदि मन मिल गया और उत्कृष्ट मोहनीय-कर्म का बन्ध होने लगा, तो वह लाख और करोड़ सागर को पार कर जाता है। सत्तर क्रोडाक्रोडी (70 करोड़ x 70 करोड़) सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट-मोहनीय कर्म का बन्ध मन मिलने पर ही होता है। यह है बन्धन की दृष्टि से मन की अपार शक्ति, इसलिए मन को खुला छोड़ने से पहले मनन करना चाहिए कि वह आत्मा को किसी गहन गर्त में तो नहीं धकेल रहा है ? जैन-विचारणा में मन मुक्ति के मार्ग का प्रथम प्रवेशद्वार है। वहाँ केवल समनस्क - प्राणी ही इस मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं। अमनस्क-प्राणियों को तो इस राजमार्ग पर चलने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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