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मन का स्वरूप तथा नैतिक-जीवन में उसका स्थान
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चेतन (आत्मा) और जड़ (कर्म-परमाणुओं) के बीच पारस्परिक-प्रतिक्रिया भी स्वीकार करती है, लेकिन उभयात्मक-मन के माध्यम से जड़ और चेतन में पारस्परिक-प्रतिक्रिया मान लेने मात्र से समस्या का पूर्ण समाधान नहीं होता। प्रश्न यह है कि बाह्य भौतिक-तथ्य चेतन-आत्मा को कैसे प्रभावित करते हैं, जबकि दोनों स्वतंत्र हैं। यदि उभय-रूप मन को उनका योजक-तत्त्व मान लिया जाए, तो भी इससे समस्या हल नहीं होती। यह तो समस्या का खिसकाना मात्र है। जो सम्बन्ध की समस्या भौतिक-जगत् और आत्मा के मध्य थी, उसे केवल द्रव्यमन और भावमन के नाम से मनोजगत् में स्थानांतरित कर दिया गया है। द्रव्यमन औरभावमन कैसे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, यह समस्या अभी बनी हुई है। चाहे यह सम्बन्ध की समस्या भौतिक और आध्यात्मिक-तत्त्वों के मध्य हो, चाहे जड़ कर्मपरमाणु और चेतन-आत्मा के मध्य हो, अथवा मन के आधिभौतिक और भौतिक स्तरों पर हो, समस्या अवश्य बनी रहती है। उसके निराकरण के तीन ही मार्ग हो सकते हैं, या तो भौतिक और आध्यात्मिक-सत्ताओं में से किसी एक के अस्तित्व का निषेध कर दिया जाए, अथवा उनमें एक प्रकार का समानान्तरवाद मान लिया जाए, या फिर उनमें क्रिया-प्रतिक्रिया को मान लिया जाए। जैन-दार्शनिकों ने पहले विकल्प में यह दोष पाया कि यदि केवल चेतन-तत्त्व की सत्ता मानी जाए, तो समस्त भौतिक-जगत् को मिथ्या कहकर अनुभूति के तथ्यों को ठुकरा देना होगा, जैसे कि विज्ञानवादी एवं शून्यवादी बौद्ध-दार्शनिकों तथा अद्वैतवादी आचार्य शंकर ने किया। दूसरी ओर, यदि चेतन की स्वतंत्र सत्ता का निषेध कर मात्र जड़-तत्त्व की सत्ता को ही माना जाए, तो भौतिकवाद में जाना होगा, जिसमें नैतिकजीवन के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार जैन-विचारकों ने समानान्तरवाद को ही स्वीकार किया है। वे लिखते हैं कि जैन-दार्शनिकों ने मन एवं शरीर का द्वैत स्वीकार किया है और इसलिए वे समानान्तरवाद को भी उसकी समस्त सीमाओं सहित स्वीकार कर लेते हैं। वे चैत्तसिक और अचैत्तसिक-तथ्यों में एक पूर्व संस्थापित सामञ्जस्य स्वीकार करते हैं, लेकिन जैन-विचारणा द्रव्यमन और भावमन के मध्य केवल समानान्तरवाद या पूर्व संस्थापित सामञ्जस्य ही नहीं मानती। व्यावहारिक-दृष्टि से तो जैन-विचारक उनमें वास्तविक सम्बन्ध भी मानते हैं। समानान्तरवाद या पूर्व-संस्थापित सामञ्जस्य तो केवल पारमार्थिक या द्रव्यार्थिक-दृष्टि से स्वीकार किया गया है। इस प्रकार, जैन-दार्शनिक तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में जड़ और चेतन में नितान्त भिन्नता मानते हुए भी अनुभव के स्तर पर या मनोवैज्ञानिक-स्तर पर उनमें वास्तविक सम्बन्ध को स्वीकार कर लेते हैं। डॉ. कलघाटगी लिखते हैं कि जैन-चिन्तकों ने मानसिक-भावों को जड़-कर्मों से प्रभावित
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