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________________ जैन-आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष 499 जिसके चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, काय और मन, इनके द्वार भली प्रकार गुप्त हैं, भोजन करने में मात्रा जानने वाला और इन्द्रियों में संयमी है, वह भिक्षु सुखपूर्वकशरीर-सुख तथा चैत्तसिक-सुख को प्राप्त होता है, उस प्रकार का भिक्षु नजलती हुई काया और न जलते हुए चित्त से युक्त सुखपूर्वक विहरता है। धम्मपद में भी कहा है कि जो मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में असंयत रहता है, उसे मार (काम) साधना से उसी प्रकार गिरा देता है, जैसे कमजोर वृक्ष को वायु गिरा देती है, लेकिन जो इन्द्रियों के प्रति सुसंयत रहता है, उसे मार (काम) उसी प्रकार साधना से विचलित नहीं कर सकता, जैसे वायु पर्वत को विचलित नहीं कर सकता। प्राज्ञ भिक्षु के लिए यह आवश्यक है कि वह इन्द्रियों का निरोध कर सन्तुष्ट हो, भिक्षु-अनुशासन में संयम से रहे। गीता में इन्द्रिय-निरोध- गीता में भीभगवान् कृष्णने इन्द्रिय-दमन के सम्बन्ध में कहा है कि जिस प्रकार जल में नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही मन-सहित विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक भी इन्द्रिय इस पुरुष की बुद्धि को हरण कर लेने में समर्थ है।" जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार से इन्द्रियों के विषयों से वश में की हुई होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है। साधना में प्रयासशील बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी ये प्रमथन स्वभाववाली इन्द्रियाँ जबरदस्ती हर लेती हैं और उसे साधना के पथ से च्युत कर देती हैं, अत: सब इन्द्रियों को अपने अधिकार में करके चित्त को मुझ परमात्मा में नियोजित करे। जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ अपने अधिकार में हैं, वही वस्तुत: प्रज्ञावान् है। अन्यत्र कहा गया है कि सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान का विनाश करने वाले इस काम का परित्याग कर और यदि तू यह समझे कि इन्द्रियों को रोककर कामरूप बैरी को मारने की मेरीशक्ति नहीं है, तो तेरी यह भूल है, क्योंकि इस शरीर से तो इन्द्रियों को परे (श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म) कहते हैं और इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त परे है, वह आत्मा है, अत: आत्मा के द्वारा इनका निरोध करना ही चाहिए। इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षित होती हैं और ये इन्द्रियों के विषय जीवात्मा में विकार उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार, आत्मा का आन्तरिक-समत्व भंग हो जाता है, इसलिए कहा गया है कि साधक शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श-इन पाँचों इन्द्रियविषयों के सेवन को सदा के लिए छोड़ दे।2। क्याइन्द्रिय-दमनसंभव है ?-सभी आचार-दर्शन इन्द्रिय-संयम पर बल देते हैं, लेकिन क्या इनका निरोध संभव है ? विचार करने पर ज्ञात होता है कि जब तक जीव देहधारण किए है, उसके द्वारा इन्द्रिय-व्यापार का पूर्ण निरोध संभव नहीं। कारण यह है कि वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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