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जैन-आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष
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अनिवार्य शारीरिक क्रियाओं के करने और नहीं करने का प्रश्न तो जैन-दृष्टि से नैतिकता की सीमा में नहीं आता, लेकिन इनके सम्पन्न करने का ढंग नैतिक-विचार की परिसीमा में आजाता है और उसका नैतिक-मूल्याकंन भी किया जा सकता है। भोजन अथवा मलमूत्र का विसर्जन करना उचित है या अनुचित है, यह प्रश्न तो जैन-नैतिकता में नहीं उठता है; लेकिन भोजन कैसे करना, क्या भोजन करना, मलमूत्र का विर्सजन कैसे और कहां करना, ये प्रश्न नैतिकता के सीमा-क्षेत्र में आते हैं। इतना ही नहीं, कुछ मूलप्रवृत्यात्मक मानी जाने वाली क्रियाएँ तो स्पष्ट रूप से जैन-नैतिकता के क्षेत्र में समाविष्ट हैं, जैसे कामवृत्ति, संग्रहवृत्ति और आक्रमण-वृत्ति आदि। जैन नैतिक-विचारणा व्यक्ति की जीवन-प्रणाली को अत्यन्त निकट से परखती है। जैन-विचारकों ने जीवन की सामान्य क्रियाओं, जैसे चलना, बैठना, सोना, खाना और बोलना, सभी को नैतिक-दृष्टि से समझने की कोशिश की है। दशवैकालिकसूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि 'साधक कैसे चले, कैसे बैठे, कैसे शयन करे, कैसे भोजन करे और कैसे भाषण करे, ताकि पाप-कर्म का बंध न हो ?' जैनविचारकों ने साधु के लिए जिन आचार-नियमों का प्रतिपादन किया है, उनमें गमन, भाषण, भोजन, वस्तुओं का आदान-प्रदान एवं उपयोग तथामलमूत्रादि का विसर्जन आदि सभी क्रियाओं को समाविष्ट कर लिया है।
लेकिन, इस कारण हमें इस भ्रान्ति में नहीं पड़ना चाहिए कि जैनाचार-प्रणाली में जीवन की सामान्य क्रियाओं पर ही अधिक विचार किया गया है और उनके पीछे कोई गहन दृष्टि नहीं है। वह यह तो स्वीकार करती है कि हमारे समग्र जीवन का व्यवहार नैतिकता से सम्बन्धित है, लेकिन यह व्यवहार अपने-आप में न तो नैतिक होता है, न अनैतिक। दशवैकालिकसूत्र की भूमिका में संतबाल लिखते हैं कि ग्रन्थकार यह बात साधक के मन में ऊँचा देना चाहता है कि कोई अमुक क्रिया स्वयमेव पाप नहीं है, पाप यदि कुछ है, तो वह है आत्मा की उपयोगहीनता (प्रमत्तता); सजग आत्मा कोई क्रिया क्यों न करे, उसे पाप का बन्ध नहीं होता और उपयोगरहित (अजाग्रत) आत्मा कुछ भी न करे, फिर भी वह पापकी भागी है। जैन-दृष्टि में जो कुछ अनैतिक है, वह है, विवेकाभाव अथवा आत्मा की प्रमत्त याअजाग्रत-अवस्था। कोई भी क्रिया इसी आधार परशुभ और अशुभ बनती है। संक्षेप में, जैन नैतिक-चिन्तन में क्रिया स्वतः शुभ और अशुभ नहीं होती, वरन् उसके पीछे रही हुई आत्म-सजगता की उपस्थिति या अनुपस्थिति ही उसे शुभ अथवा अशुभ बनाती है। दशवैकालिक में जो यह प्रश्न उठाया गया कि यदि बैठना, उठना, सोना तथा खान-पान, भाषण आदि सभी क्रियाएँ नैतिकता के क्षेत्र में आती हैं, तो फिर उन्हें किस प्रकार सम्पादित
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