SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन संकल्प में परिणत या संकल्प से परिचालित नहीं होती, वे नैतिकता की परिसीमा में नहीं जातीं। नैतिकता का क्षेत्र संकल्पयुक्त कर्म 2. 482 पाश्चात्य- - दृष्टिकोण - म्यूरहेड कहते हैं कि हम आचार को ऐच्छिक-क्रियाओं के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, अतः पाश्चात्य - चिन्तन के अनुसार नैतिक निर्णय केवल उन ऐच्छिक कर्मों पर ही दिए जा सकते हैं, जो किसी विवेकबुद्धि-सम्पन्न कर्त्ता द्वारा स्वतंत्र संकल्पपूर्वक सम्पादित किए गए हों। अचेतन प्राकृतिक घटनाएँ नैतिकता की परिधि में नहीं आतीं, क्योंकि उनका कोई चेतन- कर्त्ता नहीं होता। इसी प्रकार, पशु, बालक, पागल और मूर्ख लोगों के कर्म भी नैतिक निर्णय के विषय नहीं माने गए हैं, क्योंकि शुभाशुभ का विवेक नहीं होता। इसी प्रकार, बाध्यतामूलक कर्म, चाहे उनकी वह बाध्यता भौतिक हो, अन्य व्यक्तियों की अधीनता की हो, अथवा भावना-ग्रन्थियों या सम्मोहनजनित हो, नैतिक निर्णय की परिधि में नहीं आते; क्योंकि उनमें स्वतंत्र संकल्प का अभाव होता है। इस प्रकार, पाश्चात्य आचार-दर्शन में नैतिकता की परिधि में आने वाले कर्म के लिए तीन बातें आवश्यक हैं- 1. शुभाशुभ विवेक-क्षमता, 2. कर्म-संकल्प और 3. कर्म-संकल्प का स्वतंत्र होना । इन तीन बातों में किसी एक का अभाव होने पर कर्म नैतिक-निर्णय का विषय नहीं बनता । पाश्चात्य आचार- दर्शन के अनुसार निम्न अनैच्छिकक्रियाएँ सामान्यतया नैतिक निर्णय का विषय नहीं मानी जाती हैं- 1. स्वत: चालित क्रियाएँजैसे खून की गति, पाचन-क्रिया आदि, 2. प्रतिवर्त्त क्रियाएं- जैसे छींक, पलक झपकना, 3. अनियमित क्रियाएँ - जैसे बच्चे का हाथ-पैर मारना, 4. मूलप्रवृत्तिजन्यक्रियाएँ- जो मनोशारीरिक विन्यास के कारण होती हैं, 5. विचारप्रेरित कर्म- जो विचार से प्रेरित होते हुए भी विचार नियन्त्रित नहीं होते हैं। जैन- दृष्टिकोण- सामान्यतया, जैन आचार-दर्शन भी ऐच्छिक - कर्मों को उचित अथवा अनुचित की श्रेणी में मानता है और उनके औचित्य एवं अनौचित्य का निर्धारण भी कर्म के संकल्प के आधार पर ही करता है, फिर भी जैन-दर्शन कुछ अनैच्छिक कही जाने वाली क्रियाओं को भी नैतिकता की श्रेणी में ले आता है। जैन- विचारक यह तो मानते हैं कि अधिकांश अनैच्छिक शारीरिक क्रियाओं का करना शरीर का अनिवार्य धर्म होने के कारण भी आवश्यक होता है। उन्हें रोकने अथवा करने या नहीं करने की सामर्थ्य तो वैयक्तिक - संकल्प में नहीं है, फिर भी उनके सम्पन्न करने का ढंग व्यक्ति की इच्छा के अधीन है। मनावैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करते हैं कि मनुष्य में अनैच्छिक और अनर्जित कहा जाने वाला मूलप्रवृत्यात्मक - व्यवहार वस्तुतः अर्जित और ऐच्छिक ही होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy