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जैन-आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक पक्ष
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जैन-आचारदर्शन का मनोवैज्ञानिक-पक्ष
1. मनोविज्ञान और आचार-दर्शन का सम्बन्ध
आचार-दर्शन का कार्य जीवन के साध्य के संदर्भ में आचरण की दिशा का निर्धारण और मूल्यांकन करना है। औचित्य और अनौचित्य के सारे निर्णय आचरण से सम्बन्धित होते हैं। कायिक, वाचिक और मानसिक-क्रियाएँ ही, जिन्हें जैन-परिभाषा में 'योग' कहा जाता है, आचार-दर्शन की विषयवस्तु हैं। मनोविज्ञान की अध्ययन-सामग्री भी यही कायिक, वाचिक और मानसिक-क्रियाएँ हैं। उडवर्थ ने मनोविज्ञान को मानसिक और शारीरिक- क्रियाओं का विज्ञान कहा है। इस प्रकार, मनोविज्ञान और आचार-दर्शन की विषय-वस्तु एक ही है। आचार-दर्शन जीवन के आदर्श के सन्दर्भ में उनका मूल्यांकन करता है और मनोविज्ञान उनकी वास्तविक प्रकृति का अन्वेषण करता है।
व्यवहार के तथ्यात्मक-स्वरूप को समझना मनोविज्ञान का कार्य है और व्यवहार के आदर्श का निर्धारण करना आचार-दर्शन का कार्य है, लेकिन किसी भी आदर्श का निर्धारण तथ्यों की अवहेलना करके नहीं होता; 'हमें क्या होना चाहिए', यह बहुत-कुछ इस पर निर्भर करता है कि हमारी क्षमताएँ क्या हैं ? मनोवैज्ञानिक-अध्ययन हमें यह बताता है कि हम क्या हैं, अथवा हमारी क्षमताएँ क्या हैं और उसी आधार पर आचार-दर्शन कहता है कि हमें क्या होना चाहिए ? आचार-दर्शन मनोवैज्ञानिक-तथ्यों की अवहेलना करके आगे नहीं बढ़ सकता। मनोवैज्ञानिक-तथ्यों या मानवीय-प्रकृति की अवहेलना करके नैतिक-दर्शन का निर्धारण करना व्यर्थ होगा। ऐसा आदर्श, जिसे मानव यथार्थ (Real) नहीं बना सके, मात्र छलना है। जिस आदर्श (साध्य) को उपलब्ध करने की क्षमताएँ मानव में निहित न हों, उसे मानव-जीवन का साध्य नहीं बनाया जा सकता।
मनोविज्ञान का आचार-दर्शन से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है, इस विषय से इतना कहना ही पर्याप्त है कि आचार-दर्शन मनोविज्ञान से पृथक् होकर अपने अस्तित्व को ही खतरे में डाल देता है। आचार-दर्शन 'आचरण कैसा होना चाहिए' -इस प्रश्न को हाथ में लेता है, लेकिन आचरण क्या है ? तथा क्यों और कैसे होता है ?' इन प्रश्नों का उत्तर मनोविज्ञान देता है। आचरण की इन बातों को समझे बिना आचरण के दर्शन का निर्धारण करना, मात्र वैचारिक-उड़ान ही होगी। आचार-दर्शन के लिए मनोवैज्ञानिक-अध्ययन
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