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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
साधना-पथ बन जाते हैं। यही जब अपनी पूर्णता को प्रकट कर लेते हैं, तो साध्य बन जाते हैं। जैन आचार-दर्शन के अनुसार सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपयह साधना-पथ है और जब ये सम्यक् चतुष्टय अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसौख्य और अनन्तशक्ति को उपलब्ध कर लेते हैं, तो वही अवस्था साध्य बन जाती है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जो साधक-चेतना का स्वरूप है, वही सम्यक् बनकर साधनापथ बन जाता है
और वही पूर्ण के रूप में साध्य होता है। साधनापथ और साध्य-दोनों ही आत्मा की अवस्थाएँ हैं। आत्मा की सम्यक् अवस्था साधना-पथ है और पूर्ण अवस्था साध्य है।
गीता के अनुसार भी साधना-मार्ग के रूप में जिन सद्गुणों का विवेचन उपलब्ध है, उन्हें परमात्मा की ही विभूति माना गया है। यदि साधक आत्मा परमात्मा का अंश है और साधना-मार्ग परमात्मा की विभूति है और साध्य वही परमात्मा है, तो फिर इनमें अभेद ही माना जाएगा। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि यह अभेद तात्त्विक है, व्यावहारिक नहीं। व्यावहारिक-जीवन में साध्य, साधक और साधना-पथ तीनों अलग-अलग हैं, क्योंकि यदि उनमें यह भेद स्वीकार नहीं किया जाएगा, तो नैतिक-जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा। आचार-दर्शन का कार्य यही है कि वह इस बात का निर्देश करे कि साधक आत्मा को साधना-मार्ग के माध्यम से सिद्धि की प्राप्ति कैसे हो सकती है।
सन्दर्भ ग्रंथ1. कठोपनिषद्, 1/2/1-2. 2. आउटलाइन्स ऑफजूलाजी, पृ. 21.
जीवन कीआध्यात्मिक दृष्टि, पृ. 259. फर्स्ट प्रिन्सपल्स् : स्पेन्सर, पृ. 66. Idealistic view of life, पृ. 197.
फाइव टाइप्स आफ एथिकलथ्योरीज, पृ. 16. 7. दीघनिकाय-सामञ फलसुत्त। 8. एथिकल स्टडीज, अध्याय-2. 9. साइकालाजी एण्डमारलस्, पृ. 183. 10. एथिकल स्टडीज, पृ. 11. 11. एथिकल स्टडीज्, पृ. 11. 12. समयसार, 18;समयसारटीका, 15 पृ. 41.
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