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बन्थन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा)
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विनय- विनम्रवृत्ति तथा वरिष्ठजनों के प्रति सम्मान प्रकट करना, 9. वैयावृत्य-सेवा, 10. स्वाध्याय, 11. ध्यान और 12. व्युत्सर्ग-ममत्व-त्याग।
इस प्रकार, साधक संवर के द्वारा नवीन-कर्मों के आस्रव (आगमन) का निरोध तथा निर्जरा द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। 8. बौद्ध आचार-दर्शन और निर्जरा
बुद्ध ने स्वतन्त्र रूप से निर्जरा के सम्बन्ध में कुछ कहा हो, ऐसा कहीं दिखाई नहीं दिया, फिर भी अंगुत्तरनिकाय में एक प्रसंग है, जहाँ बुद्ध के अन्तेवासी शिष्य आनन्द निर्ग्रन्थ-परम्परा में प्रचलित निर्जरा का परिष्कार करते हुए बौद्ध-दृष्टिकोण उपस्थित करते हैं। अभय लिच्छविआनन्द के सम्मुख निर्जरासम्बन्धी जैन-दृष्टिकोण इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं- 'भन्ते! ज्ञातृ-पुत्र निर्ग्रन्थ का कहना है कि तपस्या से पुराने कर्मों का नाश हो जाता है और कर्मों को न करने से नए कर्मों का घात हो जाता है। इस प्रकार, कर्म का क्षय होने से दुःख का क्षय, दुःख काक्षय होने से वेदनाका क्षय और वेदना का क्षय होने से सारे दुःख की निर्जरा होगी। इस प्रकार, सांदृष्टिक निर्जरा- विशुद्धि से (दुःख का) अतिक्रमण होता है। भन्ते!, भगवान् (बुद्ध) इस विषय में क्या कहते हैं ?
___ इस प्रकार, अभय द्वारा निर्जरा के तप-प्रधान निर्ग्रन्थ-दृष्टिकोण को उपस्थित कर, निर्जरा के सम्बन्ध में भगवान् बुद्ध की विचारसरणि को जानने की जिज्ञासा प्रकट की गई है। आयुष्मान् आनन्द इस सम्बन्ध में भगवान् बुद्ध के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, 'अभय ! उन भगवान् (बुद्ध) के द्वारा तीन निर्जरा-विशुद्धियाँ सम्यक् प्रकार कही गई हैं। हे अभय ! भिक्षु सदाचारी होता है, प्रातिमोक्ष-शिक्षा-पदों के नियम का सम्यक् पालन करने वालाहोता है, इस प्रकार वह शील-सम्पन्न भिक्षु काम-भोगों से दूर हो चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है। इस प्रकार, वह शील-सम्पन्न भिक्षु आस्रवों का क्षय कर अनासव-चित्त-विमुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी शरीर में जानकर, साक्षात् कर, प्राप्त कर, विहार करता है। वह नया कर्म नहीं करता और पुराने कर्मों (के फल) को भोगकर समाप्त कर देता है। यह सांदृष्टिक-निर्जरा है, अकालिका (देश और काल की सीमाओं से परे)। 26
इस प्रकार, हम देखते हैं कि बौद्ध-परम्परा निर्जरा के प्रत्यय को स्वीकार तो कर लेती है, लेकिन उसके तपस्यात्मक-पहलू के स्थान पर उसके चारित्र-विशुद्ध्यात्मक तथा चित्त-विशुद्ध्यात्मक-पहलू पर ही अधिक जोर देती है। बुद्ध की दृष्टि से निर्जरा के लिए कठोर तपस्या आवश्यक नहीं है। आवश्यक है- सदाचार के पालन एवं सम्यक् ध्यान के द्वारा प्राप्त होने वाली चित्त-विमुक्ति। बुद्ध निर्जरा के लिए उन्हीं बातों पर अधिक जोर देते हैं, जिन्हें जैन-दर्शन अन्तरंग-तप कहता है।
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