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________________ 426 भारतीय आचार - दर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन वह इन सबको स्वीकार न करे, तो वह उस दशा में पशु से भी हीन होगा । इस प्रकार, यह सिद्ध होता है कि मर्यादाओं का पालन अनिवार्य है। सभी मर्यादाओं का पालन करना संयम नहीं है, लेकिन यदि मर्यादाओं का पालन स्वेच्छा से किया जाता है, तो उनके पीछे अव्यक्त रूप में संयम का भाव निहित रहता है। सामान्यतया, वे ही मर्यादाएँ संयम कहलाती हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति आत्मविकास और परमसाध्य की प्राप्ति करता है । 6. निर्जरा आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का सम्बद्ध होना बंध है और आत्मा से कर्म-वर्गणाओं का अलग होना निर्जरा है। नवीन आने वाले कर्म - पुद्गलों को रोकना ( संवर) है, परन्तु मात्र संवर से निर्वाण की प्राप्ति संभव नहीं । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि किसी बड़े तालाब के जल स्रोतों (पानी के आगमन के द्वार) को बन्द कर दिया जाए और उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचा जाए और ताप से सुखाया जाए, तो वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जाएगा।' इस रूपक में आत्मा ही सरोवर है, कर्म पानी है, कर्म का आस्रव ही पानी का आगमन है। उस पानी के आगमन के द्वारों को निरुद्ध कर देना संवर है और पानी को उलीचना और सुखाना निर्जरा है। यह रूपक यह बताता है कि 'संवर से नए कर्मरूपी जल का आगमन (आस्रव) तो रुक जाता है, लेकिन पूर्व में बंधे हुए, सत्तारूप कर्मों का जल, जो आत्मारूपी तालाब में शेष है, उसे सुखाना ही निर्जरा है | 20 द्रव्य और भाव-रूप निर्जरा- निर्जरा शब्द का अर्थ है- जर्जरित कर देना, झाड़ देना, अर्थात् आत्म-तत्त्व से कर्म - पुद्गलों का अलग हो जाना अथवा अलग कर देना निर्जरा है । यह निर्जरा दो प्रकार की है। आत्मा का वह चैत्तसिक अवस्थारूप हेतु, जिसके द्वारा कर्म-पुद्गल अपना फल देकर अलग हो जाते हैं, भाव-निर्जरा कहा जाता है। भाव - निर्जरा आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था है, जिसके कारण कर्म - परमाणु आत्मा से अलग हो जाते हैं। यही कर्म-परमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्य - निर्जरा है। भाव-निर्जरा कारणरूप है और द्रव्य - निर्जरा कार्यरूप है। सकाम और अकाम - निर्जरा - निर्जरा के ये दो प्रकार भी माने गए हैं 1. कर्म जितनी काल - मर्यादा के साथ बँधा है, उसके समाप्त हो जाने पर अपना विपाक (फल) देकर आत्मा से अलग हो जाता है, यह यथाकाल - निर्जरा है। इसे सविपाक, अकाम और अनौपक्रमिक-निर्जरा भी कहते हैं। इसे सविपाक - निर्जरा इसलिए कहते हैं कि इसमें कर्म अपना विपाक देकर अलग होता है, अर्थात् इसमें फलोदय (विपाकोदय) होता है। इसे अकामनिर्जरा इस आधार पर कहा गया है कि इसमें कर्म के अलग करने में " व्यक्ति के संकल्प का तत्त्व नहीं होता । उपक्रम शब्द प्रयास के अर्थ में आता है, इसमें वैयक्तिक प्रयास का अभाव होता है, अत: इसे अनौपक्रमिक भी कहा जाता है। यह एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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